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जयप्रकाश नारायण की जयंती पर संस्मरण-डा.अरुण सज्जन

१९७४ में, मैं मैंट्रीक का छात्र था। वजीरगंज (गया) प्रखंड के छात्र संघर्ष समिति का सदस्य। अप्रैल या मई का महीना था। हमारे सीनियर कामता सिंह समिति के सचिव थे। प्रतिदिन ब्लौक,थाना और पोस्ट औफिस के पास चार विद्यार्थियों का जत्था १२ घंटे अनशन के लिए बठने का क्रम चल रहा था।प्रत्येक गांव से प्रतिदिन चार विद्यार्थी चयन किए जा रहे थे।मेरे गांव पूरा से चार विद्यार्थियों का चयन किया गया जिसमें मैं भी था। मैं ही उस समूह में कम उम्र का छात्र था करीब सत्रह साल की उम्र होगी।मेरे साथ नवल सिंह,उपेन्द्र सिंह और सत्येन्द्र सिंह सभी दो साल के मुझसे सीनियर थे।
रात में ही सचिव कामता सिंह ने हमें समझाकर कहा था,सुबह सात बजे थाना के सामने एक मंच बना दिया हुआ है वहां आकर सात बजे सुबह से सात बजे शाम तक भूख हड़ताल पर बैठना है।मां ने रात में भर पेट खाना खिलाया था,मां की ममता थी। मां सोंच रही थी,जो बेटा को दिन भर में बार-बार नास्ता खाना याद कर खिलाती हूं वह कैसे दिन भर भूखा रहेगा। मैं काफी अंदर से उत्साहित और जिज्ञासु था अनशन पर बैठने के लिए।शायद उसके पीछे कारण था,बचपन से गांधी जी की शताब्दी वर्ष १९६९ में गलियों में घूम-घूम कर नारा लगाना,देश भक्त महापुरुषों की आत्मकथा पढ़ते रहना आदि-आदि।उस उम्र तक मुझे याद है डा.राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरु,इन्दिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, महात्मा गांधी आदि की आत्मकथाएं पढ़ ली थी।फिर प्रेमचंद के उपन्यासों का भी प्रभाव था, जिसमें “सेवासदन, कर्मभूमि, रंगभूमि”आदि का अधिक प्रभाव था मुझे पर।बाबू जी से विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के साथ बिताए स्मरण भी सुना करता था।जे.पी.को कई बार सुन चुका था उस समय तक ही।
खैर, अनशन का दिन सुबह सात बजे हम चारो छात्र थाने के सामने मंच पर स्वतंत्रता सेनानी की मुद्रा में पाजामा- कुर्ता पहनकर बैठ गये थे। मिडिया का जमाना था नहीं कि कोई फोट- वोटो खिंचता। हाथ में अखबार लिए पढ़ते हमलोग १२ बजे दिन तक तो हंसते- बातें करते बिताए,पर १२ बजे के बाद प्यास से विशेष कर मुंह सूखने लगा।दोपहर के सन्नाटे और बैशाख महीने की लू जोरों पर थी। चहल-पहल की सड़क सन्नाटे में बदल गई।किसी तरह बैठे-बैठे चार बजा तो देखा कि लोग बड़ी दया भाव से हमलोग को देखने आते थे। हमलोग की कमर बैठे-बैठे अकड़ चुकी थी।चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी ,होठ सूख गए थे।सुबह की ताजगी जो सबके चेहरे पर थी वह सूर्यास्त होते – होते किशोरावस्था का लाल कैसोर वर्ण गर्मी और लू के थपेड़े खाकर मुरझा चुके थे।शाम सात बजे प्रखंड के प्रमुख (नाम नहीं याद है)ने फल का रस हम चारों को पिलाया और अनशन समाप्त करवाया।एक बात की कसक आज भी है “उस दिन हमारे जत्थे की गिरफ्तारी नहीं हुई।जेल जाने का सपना पूरा नहीं हुआ।”यह स्मरण और जज्बा थी उन दिनों की।

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