त्रिया-चरित्र का शाब्दिक अर्थ है स्त्रियों का आचरण (स्त्रियों द्वारा किसी समय या परिस्थिति विशेष पर की जाने वाली चतुराई या चालाकी
स्त्री को पंजाबी भाषा में त्रिया कहते हैं। त्रिया शब्द पंजाबी से हिंदी में आया है। त्रिया-चरित्र का शाब्दिक अर्थ है स्त्रियों का आचरण
स्त्री को पंजाबी भाषा में त्रिया कहते हैं। त्रिया शब्द पंजाबी से हिंदी में आया है। त्रिया-चरित्र का शाब्दिक अर्थ है स्त्रियों का आचरण (स्त्रियों द्वारा किसी समय या परिस्थिति विशेष पर की जाने वाली चतुराई या चालाकी। ) ओड़िआ में एक कहावत है -” थिले थाऊ पछे गुण हजार, चरित्र नाथिले सबू आसार।” इसका मतलब इंसान चाहे कितनी भी गुणी क्यों न हो, अगर उसका चरित्र सही नहीं है, तब उसके गुणों का कोई मतलब नहीं रहेगा। त्रिया शब्द कुछ लोगों ने इस्तेमाल करके सखी का रूप ही बदल दिया है, वास्तविक शब्द है स्त्री-और अर्थ है कि स्त्री के मन की गहराई कोई नहीं जान सकता।
पति धर्म में सती स्त्री बहुत ऊंची उठ जाती है। हमारे पुराण का एक प्रसंग है। वत्रासुर के विरुद्ध देवासुर संग्राम था। प्रथम चरण में देवता बुरी तरह पराजित हो चुके थे।युद्ध अब निर्णायक होना था। देवगुरु बृहसपति ने शची को कहा – तुम अपने पति देवराज इंद्र की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधो। शची स्वयं असुर थी। देवताओं को सन्देह था कि शची असुरों के खिलाफ ऐसा करेगी। जरा सोचिये कि उस नारी का सत् कितना ऊंचा होगा ! उस के रक्षासूत्र से ही देवता उस निर्णायक युद्ध में विजयी हो गए। विश्व इतिहास की पहली राखी , एक पत्नी ने अपने पति की कलाई पर बांधी। युद्ध में वत्रासुर मारा गया। तब कहावत हो गई कि स्त्री चरित्रं देवो न जानेति कुतो मनुष्यम्।
ऋषि अगस्त्य ने, विदर्भ के राजा को विवश किया कि वह राजकुमारी लोपमुद्रा का विवाह उन से कर दे। राजकुमारी विपुल धन सम्पत्ति ले कर ऋषि के आश्रम पहुंची। वहां अन्य ऋषिकाओं के व्यक्तित्व की हिमगिरि जैसी गरिमा देखी तो स्तब्ध रह गई। सारी सम्पत्ति दान कर दी। विवाहित होते हुए भी ब्रह्मचारिणी की तरह रही। वेदाध्ययन किया। ध्यान, धारणा, आसन, प्राणायाम किया। और वह रूप गर्विता राजकुमारी अब ब्रह्मवादिनी हो गई। उस ने वैदिक ऋचाएं लिखीं। उस ने कहा – ऋषि की कुटिया में भक्ति का नित्य उत्सव होता है और सम्पत्ति उस की देहरी पर सिर झुकाए रहती है। जय स्त्री चरितं !
अद्भुत यशोधरा ! गौतम, जब “बुद्ध” हो कर पिता से मिलने गए, तो यशोधरा को भी सूचित किया गया। वह बोली – जिस शयन कक्ष में मुझे छोङ कर भागे थे, उसी में आ कर मिलना पङेगा। गौतम ने उसे देखा तो विस्मित रह गए ! गृहस्थ योगिन यशोधरा । वार्ता के दौरान उसने कहा – पुरुष अपनी भोगी प्रवृत्ति के कारण दुर्बल होता है। आप ने इसीलिए पलायन किया। स्त्री तन से भोगी किंतु मन से योगी होती है। इसी कारण मैं शीघ्र ही स्थिर हो गई। घर में ही भिक्षुणी बन गई। भोग कामनाओं से ऊपर उठ गई। फिर उसने और गौतम की बङी माँ महाप्रजापति गौतमी ने भिक्षुणी संघ बनाया। बुद्ध को, मठ में स्त्रियों के प्रवेश के लिए सहमत किया। अंततः गौतमी एवं यशोधरा, दोनो को आत्म बोध हुआ ; वे बोधि हुईं।
एक अन्य दृष्टांत – बादशाह अकबर का समय था। ओरछा के राजा इंद्रजीत की प्रेयसी बहुत सुंदर थी और बेजोङ नृत्यांगना थी। नाम था, प्रवीण राय। अकबर ने उसे अपने दरबार में बुलाया तथा उसे खुद के रनिवास में रखने का मंतव्य जाहिर किया। प्रवीण राय प्रखर थी, निडर और सत्य में स्थिर थी। वह बोली – जूठी पत्तल तो मंगते, श्वान और कौए के लिए होती है ; हिंदुस्तान के बादशाह के लिए नहीं। बादशाह बोला, वाह ! खूबसूरती, कला ओर दिलेरी ; तीनों एक साथ। वल्लाह ! इस मुल्क के राजघरानों में यदि जांबाज औरतों की हुकूमत होती तो हम मुगल यहां नहीं होते। उस ने प्रवीण राय को बा अदब वापस भेज दिया। ओरछा में प्रवीण का महल आज भी पर्यटन स्थल बना हुआ है।
स्त्री के चरित्र का ऐसा गौरव गान उन पुरुषों ने किया है जो खुद महर्षि,ऋषि, संत व महात्मा थे। उन्होंने स्त्री के हृदय में सृजन की शक्ति देखी, मातृत्व का उत्कर्ष देखा, दया-धैर्य-त्याग का विस्तार देखा, अपनी खुशियों के मौन उत्सर्ग की मुस्कान देखी। उन्होंने स्त्री में अर्द्धनारीश्वर की शक्ति के दर्शन किये। इसीलिए वे नारी को देवापम कह सके। ऋषिका गार्गी वाचक्नवी के अनुसार – स्त्री तो सम्पूर्ण अस्तित्व है जिस में सारे रिश्ते समाये हुए हैं। सृष्टि (प्रजनन) और मुक्ति (भोग से मुक्ति) उसी में सम्भव है।
एक थी सूर्या सावित्री ! उस ने विवाह के मंत्र लिखे और पहली बार अपनी ही शादी में खुद ने वे मंत्र पढे। वे ही मंत्र पढ कर आज फेरे कराए जाते हैं। उस ने पांच हजार वर्ष पहले भी स्वयं द्वारा चयनित युवक से विवाह किया था। वह बोली – स्त्री में मानव जीवन का सम्पूर्ण वैभव है; पुरुष उस की देह से ऊपर उठेगा, तो उसे नारी की ये विभूतियां अवश्य दिखेंगी।
इसके विपरीत महान राजा भतृहरि ने अपने श्रृंगार शतक में लिखा है कि महिला दिल से काली होती है इसी लिए उसका मर्दन किया जाता है और उसके जहर को शरीर से बाहर निकलने के लिए ही उसके अधरों का पान किया जाता है। दिलचस्प यह है कि जहां साहित्य और संस्कृति में स्त्री जाति का महिमान्वयन किया गया है, वहीं लोक जीवन में ऐसी अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जिनके अनुसार स्त्री बहुत ही धूर्त, बेवफा और मूर्ख प्राणी है। एक कहावत में कहा गया है कि स्त्रियों को नाक न हो, तो वे गू खाएं। दूसरी कहावत त्रिया चरित्र के बारे में : खसम मारके सत्ती होय। आधुनिक भारत में स्त्रियों के प्रति यह विद्वेष और मजबूत हुआ है। इसका कारण यह है कि शिक्षा और अवसर पाने के बाद स्त्रियां बड़े पैमाने पर ऐसे रोजगारों में उतरी हैं जो पुरुषों के लिए आरक्षित माने जाते रहे हैं। इस तरह पुरुषों के लिए अवसर कुछ कम हुए हैं। यद्यपि दुनिया भर का अनुभव यही है कि स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कम महत्वपूर्ण काम दिए जाते हैं और उन्हें वेतन तथा मजदूरी भी कम मिलती है। फिर भी स्त्रियों का सार्वजनिक जीवन में उतरना मर्दों को नहीं भाता। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के उतरने से पुरुष-स्त्री के बीच समानता के मूल्य बनते हैं और स्त्रियों में विभिन्न स्तरों पर आत्मनिर्भरता आती है। यह पुरुषों के लिए संकेत है कि सत्ता पर उनका एकाधिकार खत्म हो रहा है और स्त्रियां, जो अब तक उनके कब्जे में रही हैं, आजाद हो रही हैं। यह बात गैर-प्रबुद्ध पुरुष मंडली को नागवार गुजरती है। मुख्यतः यही कारण है कि महिला आरक्षण विधेयक पुरुष-प्रधान भारतीय संसद में पारित नहीं हो पा रहा है। पश्चिम में जहां स्त्रियां काफी हद तक आजाद हो चुकी हैं, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते कि वे बड़े पैमान पर डायन हो चुकी हैं। उनमें से अनेक हिंसा कर रही हैं और परिवारों को बरबाद कर रही हैं, यह तथ्य है। लेकिन यह साबित होना बाकी है कि स्त्री का वास्तविक रूप यही है। सभी समाजों में स्त्रियां अधिक मानवीय दिखाई देती हैं। शायद प्रकृति ने उन्हें ऐसा बनाया ही है, क्योंकि इसके बिना वे संतति परंपरा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर पातीं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरुष भी वैसे बनाए गए हैं जिस रूप में वे उपलब्ध हैं। अर्थात एक ही संस्कृति एक खास तरह के पुरुष और एक खास तरह की स्त्रियों का निर्माण कर रही है। फिर भी इसी संस्कृति में गौतम बुद्ध, ईसा मसीह और गांधी जैसे पुरुष पैदा होते हैं और कैकेयी, तिष्यरक्षिता तथा फूलन जैसी स्त्रियां।
“त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम दैवो न जानती कुतो मनुष्य:”मतलब पुरुष के भाग्य और औरत के त्रियाचरित्र को देवता भी नहीं समझ पाये तो मनुष्य क्या है। इसी त्रियाचरित्र के सहारे तो भगवान विष्णु ने समुन्दर मंथन के बाद राक्षसों से ,मोहिनी बन, अमृत छीन पहले देवताओं को पिला दिया था। इसी त्रियाचरित से मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की थी। इसी त्रियाचरित्र की वजह से तो कैकयी राजा जनक की चहेती थी और इसी त्रियाचरित्र को दिखा उसने राम के लिए बनवास और भरत के लिए राजपाठ माँगा था।
दुनिया में औरत को सिर्फ एक काम के लिए समझा गया और इसी लिए लोक मर्यादा की रक्षा के लिए उसको अग्नि परीक्षा देनी है वो तो ठीक है कि मुझे कोई शक नहीं पर दुनिया कुछ न कहे इस लिए और अगर ऐसा है तो वो कौन सा देश है या लोग जो बताते थकते नहीं ये देश भाई बहनो का है | अगर आप कोठे पर जा रहे है तो भला आपके चरित्र में क्या दोष पर लड़की के चरित्र में तो दोष आ ही जाता है | वैसे त्रिया चरित्र का मतलब क्या है क्या ये औरत का चरित्र नहीं कि पूरे घर को खाना खिला कर खुद भूखी सो जाती है ? क्या यह त्रिया चरित्र नहीं कि जब वो सुबह उठती है तो आप सोते रहते है और जब रात में आप सोने जाते है तो वो सारा काम निपटाया करती है | क्या ये भी त्रिया चरित्र नहीं जब आप रात में नींद में दुबे होते है तब वो रात में जग कर कभी आपके बच्चे को दूध पिला रही होती है या फिर उसका मॉल मूत्र साफ़ कर रही होती है | या फिर त्रिया चरित्र का मतलब यह भी नहीं कि घर के अलावा नौकरी करने वाली त्रिया कभी भी अपने ऊपर अपना ही पैसा नहीं खर्च कर पाती ? अगर ये सारी बात आप त्रिया चरित्र नहीं मान रहे तो सच क्या नहीं कहते आखिर आपके भाई हरिश्चंद्र तो सत्य के पुजारी थे कहिये कि आपको सिर्फ जिन्दमानस में त्रिया चरित्र देखने की आदत नहीं नहीं लत पड़| गयी है , सच बताइये जब आप शब पीकर एकमहिला के करीब जाते है तो क्या आपको बर्दाश्त करना उसका चरित्र नहीं है | जब आप उसको अपनी जलती सिगरेट से जला देते है और वो रात के अँधेरे में घुट कर जी जाती है और आप अपनी भूख शांत कर सो जाते है तो क्या ये भी त्रिया चरित्र नहीं है | जब सात फेरों के बाद आप उसको सिंदूर के पंजीकरण के नाम पर रात दिन मारते है , हिंसा करते है और वो कर्ज में दुबे अपने माँ बाप का ध्यान करके नरक को सहती है तो क्या ये त्रिया चरित्र नहीं है | शायद औरत की इस सहन शक्तिको देवता भी नहीं समझ पाये | पर कही ये देवता पति देव तो नहीं जिसके हर जुल्म को सह कर वो हसती है|
इसी विषय की नब्ज़ टटोलते उपन्यासकार शिवमूर्ति की ’तिरिया चरित्तर’ कहानी पर, इसी नाम पर बनी बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म आपको एक ऐसे यथार्थ से परिचित कराती है जो कठोर सत्य है और आप में बेचैनी भर देता है।उपन्यासकार शिवमूर्ति की लेखनी ग्रामीण जीवन की निर्दयी और कठोर सच्चाई को उजागर करती है।तिरिया चरित्तर उस लड़की की कहानी है जो एक गरीब ग्रामीण परिवेश से आती है। उसपर घर के खर्च की जिम्मेदारी है।बचपन में हुई शादी और फिर परिस्थितियों के चलते उसका गौना हो जाना। और फिर पति की गैर-मौजूदगी में लड़की का उसके ससुर द्वारा रेप किया जाता है। और जब इंसाफ की घड़ी आती है तो समूचा समाज पीड़िता को ही गुनाहगार साबित करने पर उतारू हो जाता है। पंचायत का फैसला आता है कि उसे दाग दिया जाये अर्थात् जीवन भर के लिये उसके माथे पर गरम कंछुल से निशान बना दिया जाए। और समाज उसे ‘त्रियाचरित्र’ का तमगा देता है।
‘तो बदले जमाने में सोहाग से दगा की सजा है, सोहाग की निशानी, बिंदी-टिकुली लगानें की जगह, बीचोबीच माथे पर दगनी। जिंदगी भर के लिए कलंक-टीका।’
ओशो लिखते हैं कि पुरुषों के मन में स्त्रियों के प्रति प्रबल कामना है। इतनी प्रबल जितनी कि स्त्रियों के मन में पुरुष के प्रति नहीं है। यही कारण है कि स्त्रियों ने पुरुषों को गाली देने वाली किताबें नहीं लिखीं। पुरुषों ने किताबें लिखीं। मेरा भी अपना अनुभव यह है कि मैंने सब तरह की स्त्री साध्वियां देखीं, संन्यासिनियां देखीं; पुरुष साधु देखे, पुरुष संन्यासी देखे। स्त्री साध्वियों में एक तरह की गरिमा है। स्त्री साध्वियों में एक तरह की निष्ठा है। पुरुष साधु बेईमान हैं, झूठे हैं। और फिर भी गाली जब देंगे तो त्रिया चरित्र को। कारण तुम समझ लेना। कारण यह है कि अभी भी इनको स्त्री आकर्षित करती है।और इसके पीछे मनोविज्ञान ही नहीं है, इसके पीछे पुरुष और स्त्री की जैविक व्यवस्था भी है। पुरुष की कामवासना आक्रामक है। स्त्री की कामवासना ग्राहक है। तो जो आक्रामक है उसको तो अपनी वासना बहुत दिखाई पड़ती है, क्योंकि वह हमेशा छलांगें मारती है, वह कुछ कर दिखाने को आतुर होती है। तलवारें चमकाती है। म्यान के बाहर आ-आ जाती है। स्त्री को अपनी वासना दिखाई नहीं पड़ती; दिखाई पड़ भी नहीं सकती, वह ग्राहक है। कोई स्त्री कभी किसी पुरुष के पीछे नहीं दौड़ती। और दौड़े तो पुरुष ऐसा भागे…। कोई स्त्री पुरुष के पीछे नहीं जाती। कोई स्त्री पुरुष से प्रेम का निवेदन नहीं करती।
जब पुरुष कोई क्रूर घटना करता है, तो हम दांतों तले उंगली नहीं दबाते। लेकिन जब स्त्री ऐसा करती है, तो हम घोर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। इसी से साबित होता है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियों से अधिक मानवीय होने की अपेक्षा की जाती है। क्या इसी बात में स्त्री चरित्र के बेहतर होने की स्थापना निहित नहीं है? आखिर कोई तो वजह है कि अब तक कोई स्त्री हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन या माओ नहीं बनी। इसका यह उत्तर पर्याप्त नहीं है कि स्त्रियों को पर्याप्त राजनीतिक सत्ता नहीं मिली है। जबाब यह भी दिया जा सकता है कि स्त्रियों के हाथ में पहले सत्ता तो दीजिए, फिर देखिए क्या होता है। हो सकता है कि स्त्री-पुरुष के बारे में परंपरागत मान्यताएं ध्वस्त हो जाएं। हो सकता है, व्यवस्था में सुधार आए। जो भी हो, निवेदन है कि पुरुष की तरह स्त्री को भी वैसा बनने का हक दीजिए जैसा वह होना चाहती है। एक वर्ग आजाद हो या नहीं, इसका फैसला करनेवाला दूसरा वर्ग कैसे हो सकता है?