दिनकर, बच्चन और प्रसाद को स्मरण करते हुए, किसी अवसर पर उन्होंने स्वयं ही लिखा कि “अपने साहित्य सृजन के प्रेरणा-स्रोत में प्रथम नाम परम आदरणीय राष्ट्रकवि दिनकर का लूँ।
हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति जीवन-पर्यन्त अकूँठ भक्ति रखने वाले सुकवि पं रामदेव झा, हिन्दी काव्य-संसार में, उत्तर-छायावाद काल के एक प्रतिष्ठित तथा जीवन के प्रति राग और उत्साह का दम भरने वाले कवि थे। उनके संपूर्ण साहित्य में, सर्वत्र ही प्रेम, करुणा और आस्था का मंत्र गूँजता है। वे हिन्दी के समर्पित सेवक थे। सदैव साहित्यिक-जागरण का एक ध्वज लिए फिरा करते थे। उन्होंने अपने प्रिय कवि,विश्व-विश्रूत महाकाव्य ”कामायनी’ के महाकवि जयशंकर प्रसाद की स्मृति में ‘प्रसाद साहित्य परिषद’ नामक एक संस्था स्थापित कर रखी थी, जिसके माध्यम से अपने आवास पर प्रायः ही साहित्यिक-गोष्ठियाँ किया करते थे। ‘जलता है दीपक’ नामक उनकी काव्य-रचना, जो बहुत हीं लोकप्रिय हुई थी, मानव-जीवन और प्रकृति के प्रति उनके विराट दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करती है। पण्डित जी अर्थ के अभाव में रहे, किंतु भाव का अभाव उनमे कभी नही रहा। बल्कि वे रागात्मक दृष्टि के ‘महाभाव’ के सुदर्शन व्यक्तित्व और सुकवि थे।
बिहार के सीतामढ़ी (अब शिवहर) जिले के डुमरी-कटसरी ग्राम में, एक निम्न मध्यम-वर्गीय पुरोहित-कुल में ११ जून १९२७ को, इस पुण्य-धरा पर अवतरित हुए झाजी, अपनी प्रांजल मेधा, परिश्रम, मृदुता तथा सदव्यवहार के कारण, बालपन से ही सबके प्यारे-दुलारे बन गए थे। ईश्वर ने आकर्षक मेधा के साथ सुदर्शन रूप भी दिया था, जो सबके हृदय का कर्षण कर लेता था। झाजी की प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में ही पूरी हुई। १९४५ में उन्होंने प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण की, किंतु आगे की शिक्षा, अर्थाभाव में आगे नही बढ़ पाई। ‘कविता’ से उदरपूर्ति हो नही सकती थी, इसलिए आजीविका की चिंता बनी रही। चार-पाँच वर्षों के भटकाव के बाद पटना जिले के मोकामा में मिलिट्री के एक भण्डार में भण्डार-पाल (स्टोर-कीपर) की सेवा प्राप्त हुई। चार साल की इस सेवा के पश्चात १९५५ में पटना उच्च न्यायालय में लिपिक के पद पर योगदान दिया। तब से लौकिक आजीविका की चिंता समाप्त हुई। झाजी मित-व्ययी और स्वाभिमानी थे। इसलिए सीमित आय में भी आनंदपूर्वक जीवन-यापन करते रहे और हृदय निचोड़ कर साहित्य की सेवा की। बालपन से अंकुरित कवि को, पटना के साहित्यिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का संस्कार मिला और उनकी कविता, अलंकारों के अंगराग से विभूषित होकर, काव्य-रसिकों को रिझाने लगी। शनैः-शनैः वे काव्य-गोष्ठियों और मंचों पर अपनी विमल उपस्थिति दर्ज कराने लगे। हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग ने प्रेरित किया तो, स्वतंत्र छात्र के रूप में, ४७ वर्ष की आयु में (सन १९७४ में) मगध विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर १९७८ में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से १९७९ में ‘साहित्य-रत्न’ और ‘साहित्यालंकार’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
वे बालपन से ही प्रकृति-प्रेमी और काव्य-रसिक थे। उन पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, हरिवंश राय बच्चन और महाकवि जयशंकर प्रसाद का बहुत गहरा प्रभाव था। दिनकर उन्हें बहुत स्नेह देते थे और लगभग ७ वर्षों तक दोनों का बहुत निकट का सान्निध्य रहा। प्रसाद तो जैसे उनके मन-प्राण में ही बस्ते थे। १९४७ में ही उन्होंने उनके नाम से एक साहित्यिक संस्था ‘प्रसाद साहित्य परिषद’ की स्थापना कर ली थी, जिसके तत्त्वावधान में नियमित रूप से काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित करते थे। इन गोष्ठियों में, आचार्य शिवपूजन सहाय, आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा, बाबा नागार्जुन, रामचंद्र भारद्वाज, डा श्रीरंजन सूरिदेव, कवि सत्य नारायण, डा बजरंग वर्मा, मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’, बाबूलाल मधुकर, राम नरेश पाठक, सत्यदेव नारायण अष्ठाना, वाल्मीकि प्रसाद विकट, न्यायमूर्ति प्रभाशंकर मिश्र आदि उपस्थित हुआ करते थे। किसी अवसर पर,हिन्दी के भावितात्मा साहित्यकार आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भी परिषद को कृतार्थ किया और संस्था की, साहित्य सेवाओं के लिए मुक्त-कंठ से प्रशंसा की।
दिनकर, बच्चन और प्रसाद को स्मरण करते हुए, किसी अवसर पर उन्होंने स्वयं ही लिखा कि “अपने साहित्य सृजन के प्रेरणा-स्रोत में प्रथम नाम परम आदरणीय राष्ट्रकवि दिनकर का लूँ। बाद में महाकवि बच्चन के ‘एकांत संगीत’ तथा ‘निशा-निमंत्रण’ के गीतों के साथ महाकवि प्रसाद के ‘आँसू’ ने भी मेरे लेखन को प्रभावित किया है। जैसे-जैसे साहित्य के अध्ययन में रुचि बढ़ती गई, ‘साहित्य’ जीवन से गहरे जुड़ता गया। उसने प्रभावित क्या किया, अपनी गली का दीवाना बना दिया।’
साहित्य और काव्य के प्रति इसी राग (दीवानापन) ने झाजी को वह असीम ऊर्जा प्रदान की, जिससे वे जीवन के कठिन संघर्षों के पन्नों पर ‘विजयश्री’ लिखते हुए, अपने लौकिक और साहित्यिक जीवन को भी प्रांजल, बहुजन हिताय और स्वांतः सुखाय बना लिया। वे जब तक जीवित रहे, हास-परिहास, मौज-मस्ती और ज़िंदादिली के साथ जिए। वे पूरे चमक-दमक के साथ काव्य-गोष्ठियों में जाते और उनमुक्त होकर काव्य-पाठ करते। मित-व्ययी थे किंतु कृपण नही थे। अर्थ से भी और विचारों से भी। उनके पास जो भी होता, प्रेम,पुष्प अथवा अनुभव-जन्य विवेक, सबकुछ उदारता पूर्वक बाँटते रहे। सभी साहित्यकारों का, भेदभाव-रहित होकर सम्मान और सत्कार किया करते थे। वे एक सात्विक कवि की भाँति, कभी किसी ‘वर्ग’ या ‘वाद’ से नही जुड़े। इन सब से निस्पृह रहकर उन्होंने सबके प्रति अपने मन में सम्मान और सद्भाव रखा। खेमे-वादी से वे सदा-सर्वदा दूर रहे। और यह सबकुछ उनके साहित्य में भी उसी प्रकार स्पष्ट झलकता रहा। उनका स्वाभिमान याचना के स्थान पर साधना के पक्ष में खड़ा होता है, और कहता है;-
“वरदान चाहने वाला मन,
पूजा कर, मत वरदान मांग।
साधना न फिरती है दर-दर,
प्रार्थना न होती है सब घर,
साधना प्रार्थना करता जा
मत पूजा का प्रतिदान मांग।”
कवि यह मानता है कि व्यक्ति जब स्वयं अपने या अपनों से छला जाता है और जब उसे इसकी प्रतीति होती है, तब वह अध्यात्म और दर्शन के आश्रय में आता है, जहाँ उसे सच्ची शांति मिलती है और उसका मानव-जीवन धन्य होता है;
“अपने ही मन से था जब मानव छला गया,
तब पायी उसने राह ज़िंदगी जीने की।
मन के बंधन में जब उसको कस कर बांधा,
अंधी गतियों में जैसा चाहा था साधा,
जब पतन शिखर पर पहुँच गया, मन घबड़ाया,
जर्जर जीवन पग-पग पर व्याकुल अकुलाया।
कवि का निर्मल भाव सदा उपदेशक ही नही रहता, उसमें सामान्य मन की व्यथा, इच्छा और आकांक्षाओं के भी स्वर हैं;
“किसी की याद जिसको, मैं न देना चाहता हूँ,
किसी की याद, जिसको मैं न खोना चाहता हूँ,
जलन जिसको मधुर, पीड़ा मधुर, टीसें मधुर हैं,
किसी की याद की लहरें उठीं, मैं रुक न पाया।
किसी की याद की तरणी खुली, मैं रुक न पाया।”
पं झा का कवि, प्रकृति को सदैव अपने निकट पाता है, और जब भी प्रकृति से कहीं खिलवाड़ हो तो उसके प्रतिकार में खड़ा दिखाई देता है। नदियों के बांधे जाने के सरकार के निर्णय पर उन्होंने इन पंक्तियों से प्रतिवाद किया कि;
“बँधती आज नदी की धार/ लहरें विकल विकल होती हैं ।
धारा में उठ गिर रोती हैं!
पछतावे में सिर धुन-धुन कर, धारा में गिर रहा किनारा!
बँधती आज नदी की धारा!”
कवि एक सजग जन-प्रहरी की भाँति समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा राजनीति को भी अपनी कविता का विषय बनाता है और व्यंग्य के लहजे में कड़ा प्रहार भी करता है;-
“आश्वासन की पुड़ियाँ बँटती, जहाँ सुबह से शाम तक।
भींड़ लगी लेने वालों की, खाश-खाश और आम तक!
अधलेटे नेताजी हँसकर, बातें करते जाते हैं।
‘स्नेह’-ग्रहण कर, आश्वासन,फिर नमस्कार पर आते हैं!”
जीवन के अनेक अनुत्तरित प्रश्नों से निरंतर जूझते, कंटकों पर चलते पंडित जी जितना ‘राम-नाम’ जपते रहे, उतना ही लिखा भी। पर संग्रहों का प्रकाशन नही करा सके। इसीलिए उनके हिस्से में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या नगण्य ही रही। ‘पीढ़ी’ नाम से उनकी एक काव्य-पुस्तिका सन १९६५ में प्रकाशित हुई थी। ‘तृणिका’ समेत ६ संग्रह की पांडुलिपियाँ सँजोयी, जो आज तक प्रकाशन की प्रतीक्षा में है।
१८ मार्च, १९९५ को रामदेव बाबू, अपनी इहलौकिक लीला सँवरण कर, ‘राम-लोक’ के लिए विदा हो गए। उनकी अशेष स्मृति को तर्पण देने के लिए उनके कवि-हृदय पुत्र राज किशोर झा, किंचित-अकिंचित अपनी चेष्टा करते रहते हैं। प्रकाशन कराने में तो समर्थ नहीं हो सके हैं, किंतु उनके द्वारा स्थापित संस्था ‘प्रसाद साहित्य परिषद’ को जीवित रखे हुए हैं। यदा-कदा साहित्यिक आयोजन करते रहते हैं। बदले हुए आज के युग में जब दिवंगतों को अपनी संतति तक स्मरण नही रखती, आज कौन किसको याद रखे? ऐसे में राज किशोर जी साधुभाव और आशीर्वाद के पात्र हैं, जो अपनी पिता की स्मृति को जीवित रख पा रहे हैं। पण्डित जी की ९३ वीं जयंती पर आज उनकी ही इन पंक्तियों से श्रद्धा-तर्पण देने की इच्छा होती है;-
“काल चक्र ने मुझमें नई गति भर दी है!
और मैं, कल उगने वाले सूरज और चाँद की,
किरणों का अगुआ हूँ! मैं जो आज हूँ, कल नही हूँगा!”