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“देश का नेता कैसा हो” ऐसा नारा अब गुम हो गया

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना ::

राजनीतिक सभाओं में अक्सर नारे लगते थे कि “देश का नेता कैसा हो” और इसके जवाब में नेता के समर्थक, नेता का नाम लेकर, नारे को पूरा करते थे। ऐसा करने पर देश के नागरिक जो पढ़े-लिखे नहीं होते थे, वो नारों को सुनकर ही अपना वोट दे देते थे, और चुने गए नेता वादों के अनुसार काम भी करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है।

अब नेता अपने समर्थक और जनता की सेवा के लिए कुर्सी नहीं संभालते हैं, बल्कि अपने परिवार और अपना हित के लिए कुर्सी पर बैठते है। देखा जाए तो संविधान में नेता के संदर्भ में कहा गया है कि नेता का यह सेवा “एक निःस्वार्थ और निःशुल्क सेवा” है। लेकिन वर्तमान समय में यह सेवा सशुल्क हो गया है। क्योंकि नेता अब वेतन और पेंशन भी लेते है। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या वेतन और पेंशन जो नेता ले रहे हैं वह संविधान परक है? इसे कोई देखने और सुनने वाला कोई नहीं है।

वर्तमान दौर सोशल मीडिया का है और सोशल मीडिया पर इन दिनों कई राजनीतिक दलों के नेताओं और पार्टियों पर जनता का गुस्सा फूटते देखा जा रहा है। फिर वो चाहे प्रचार कर रहे इलाके का नेता हो, विधायक हो, पार्षद हो या दल के प्रवक्ता हो। इन पर हो रहे जनता के प्रहारों में दिन पर दिन वृद्धि हो रही है। जनता ही नहीं अब तो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी अपने नेताओं को कोशते दिखाई दे रहे है। कहीं जनता जूतों के हार पहनाती रही है तो कहीं पार्टी के कार्यकर्ता अपने ही नेता को थप्पड़ मारते रहे हैं या उन पर स्याही फेकते देखे गए है।

इतिहास साक्षी है कि भारत की जनता ने हमेशा बड़बोले और दंभी नेताओं के जगह विनम्र और मृदुभाषी व्यक्तित्व वाले को अपने नेता के रूप में पसंद किया है। आजादी के बाद से अब तक हुए चुनावों में देश की जनता ने अपने शासक को चुनने में अक्सर कोई गलती नहीं की है, क्योंकि चुनाव के समय जनता का जो सामूहिक फैसला आता है उसमें अक्सर योग्य उम्मीदवार ही विजेता बनते है। यदि कोई नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो उसे अगले चुनाव में पराजय देखना पड़ता है।

राजनीति के महाज्ञानी चाणक्य द्वारा अच्छे शासक के गुणों को परिभाषित किया गया है और वही गुण है जो नेता बनने से पहले राजनीतिक क्षेत्र में अच्छे इंसान और अच्छे नागरिक के रूप में दिखने चाहिए। नेताओं में जनता आज कल महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसा विनम्र और मृदुभाषी नेता ढूँढते है। लेकिन जिस तरह ऐसे नारे कि “देश का नेता कैसा हो” और इसके जवाब में नेता के समर्थक नेता का नाम जोड़कर नारे को पूरा करते थे, गुम हो गया है, उसी तरह विनम्र और मृदुभाषी नेता भी गुम होते जा रहे है।

देखा जाय तो महात्मा गांधी के भाषणों में ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के खिलाफ में लंबी बातें नहीं मिलती है, लेकिन महात्मा गांधी ने जनता के सामने हमेशा बेहतर और सकारात्मक मुद्दे ही रखते थे। वर्तमान समय में बेहतर और सकारात्मक मुद्दे रखने वाले ऐसे नेता अब उंगलियों पर गिने जा सकते है।

किसी भी नेता का चुनाव मतदान के समय किया जाता है और नेता चुनने से पहले नेता में यह गुण देखा जाता है कि वो नेता विश्वास योग्य है या नहीं? जबकि किसी भी नेता का विश्वासी होने की छवि होना नेता का प्राथमिक गुण होता है और अगर यह गुण नहीं हो तो दूसरे सभी गुण बेकार हो जाते है। क्योंकि अगर नेता का व्यक्तित्व विश्वास करने योग्य न हो, तो उसकी विनम्रता जनता को प्रभावित नहीं करेगी और न ही निर्णय लेने की क्षमता।

सही समय पर अहम फैसला लेने से बचने और फैसले को टालने वाले नेताओं को जनता का कभी भी समर्थन नहीं मिलता है। यह गुण नेतृत्व क्षमता का पहला और अनिवार्य गुण माना गया है। प्रायः देखा गया है कि पुरानी पीढ़ी के सफल नेता चाहे वो किसी भी दल के क्यों न हो अगर वर्षों तक जनता के प्रिय बने रहे हैं तो इसी गुण के कारण।

चाणक्य ने राजा के शिक्षित होने पर अच्छा खासा जोड़ दिया था, लेकिन उस समय शिक्षा के पैमाने, आज कल के शिक्षा के स्तर से, काफी अलग था। आजादी के बाद भारतीय नेताओं की औपचारिक शिक्षा पर प्रायः ज्यादा अहमियत नहीं दी गई, इसी का परिणाम है कि भारत में अनपढ़ और अशिक्षित लोग भी नेता ही नहीं बल्कि मंत्री भी बनते है।

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