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गीता प्रेस को ‘गांधी शांति पुरस्कार’ मिलने के मायने

गीता प्रेस की गिनती विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में होती है। इसकी स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं और मानवता के सामूहिक उत्थान में एक महान योगदान देने के लिए इसे भारत सरकार द्वारा हाल ही में वर्ष 2021 के ‘गांधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित करने का निर्णय किया गया।

गीता प्रेस की गिनती विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में होती है। इसकी स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं और मानवता के सामूहिक उत्थान में एक महान योगदान देने के लिए इसे भारत सरकार द्वारा हाल ही में वर्ष 2021 के ‘गांधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित करने का निर्णय किया गया।

निःसंदेह गीता प्रेस को यह सम्मान शांति और सामाजिक सद्भाव के गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देने के लिए दिया गया हो, लेकिन कुछ विरोधी दलों को हर विषय में केवल राजनीति ही नज़र आती है।

दरअसल, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने इस संस्था को ‘गांधी शांति पुरस्कार’ के लिए चयनित करने के बाद, इसे न केवल उपहास बताया बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वीर सावरकर के योगदान को भी धूमिल किया।

हालांकि, जयराम रमेश द्वारा दिये गये इस विचारहीन बयान पर स्वयं कांग्रेस के कई नेताओं ने अपनी नाराज़गी जताई और उन्हें इसकी शिक़ायत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से भी की। इस विवेकपूर्ण कार्य के लिए हमें निश्चित रूप से कांग्रेस की प्रशंसा करनी चाहिए।

ध्यातव्य है कि ‘गांधी शांति पुरस्कार’ की घोषणा देश के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले एक निर्णायक मंडल द्वारा की जाती है और यह पुरस्कार राष्ट्रीयता, नस्ल, भाषा, जाति, पंथ या लिंग के भेदभाव से परे सभी व्यक्तियों के लिए खुला है और गीता प्रेस को इस सम्मान के लिए चुना जाना, यह दर्शाता है कि प्रधानमंत्री मोदी को भारतीय संस्कृति और विरासत की कितनी चिन्ता है।

वर्ष 1923 में सेठ जयदयाल गोयनका, घनश्यामदास जालान और हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे दूरदर्शी शख़्यितओं द्वारा स्थापित गीता प्रेस का एक गौरवशाली इतिहास रहा है और इस संस्था द्वारा अभी तक 14 भाषाओं में 41.7 करोड़ से भी पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इन पुस्तकों में रामायण, गीता, महाभारत और रामचरितमानस जैसे वैसे सभी ग्रंथ शामिल हैं, जो भारतीयता के आधार स्तंभ हैं।

गीता प्रेस का उद्देश्य कोई आर्थिक लाभ कमाने के बजाय सनातन धर्म और संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित करना है। यह संस्था न कोई दान लेती है और न ही अपने पुस्तकों में किसी के विज्ञापन को जगह देती है। यहाँ तक कि इसके द्वारा कभी अपने पुस्तकों के लिए भी विज्ञापन दिया जाता है।

इस बार भी हमें कुछ ऐसा ही देखने के लिए मिला, जब गीता प्रेस ने इस पुरस्कार को तो स्वीकार किया। लेकिन इसके साथ मिलने वाली 1 करोड़ की धन राशि को उन्होंने लेने से मना कर दिया।

यह कहना गलत नहीं होगा कि गीता प्रेस सनातन धर्म और आस्था के विस्तार का सबसे पुराना और कामयाब प्रिंट उपक्रम है। इस संस्थान ने हमारे ऐतिहासिक मान्यताओं को घर-घर में लोकप्रिय बनाते हुए, सनातन पुनरुत्थानवादियों के मिशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान हमारा समाज काफी पृथक था और अंग्रेज़ी शासन इसका भरपूर लाभ भी उठा रही थी और जब हमारे विचारकों और नेताओं को हमें एक सूत्र में पिरोने के लिए, भारत में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की अपरिहार्यता महसूस हुई, तो उस दौरान भी गीता प्रेस ने भक्ति ज्ञान और वैराग्य के विमर्श को बढ़ावा देते हुए, हमारे सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान में एक ऐतिहासिक भूमिका निभायी थी। यहाँ तक कि गीता प्रेस स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, हिंदू संहिता विधेयक को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू की भी आलोचना करने से पीछे नहीं हटी।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि गीता प्रेस के आचरण में, उसकी संपादकीय नीतियों में, हमें मानव जीवन की उत्कृष्टता और कल्याण की एक अद्वितीय झलक दिखाई देती है। उन्होंने सैकड़ों वर्ष की अपनी साधना से यह साबित किया है, वे किसी आक्रामकता के बजाय सदैव हमारी आध्यात्मिक और धार्मिक उन्नति के लिए कृत संकल्पित रहेंगे। हमें गीता प्रेस को किसी राजनीतिक चश्में के बजाय, समग्र भारतीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए। सनातन संस्कृति के नज़रिये से देखना चाहिए।

– डॉ. विपिन कुमार (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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