संवाद

राष्ट्रकवि दिनकर की स्मृति में

स्व रामधारी सिंह दिनकर सदियों से प्रसुप्त भारतीय आत्मा की हुंकार के रूप में उदित हुए थे ।उन्होंने भारतीय अस्मिता के हर पहलू को व्यंकृत किया

स्व रामधारी सिंह दिनकर सदियों से प्रसुप्त भारतीय आत्मा की हुंकार के रूप में उदित हुए थे ।उन्होंने भारतीय अस्मिता के हर पहलू को व्यंकृत किया ।कुरुक्षेत्र के माध्यम से युधिष्ठिर की क्षमा और अहिंसक वृत्ति को फटकार लगायी –
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन ,विषहीन ,विनीत ,सरल हो
वे हिमालय कविता में हिमालय से अनुरोध करते हैं कि युधिष्ठिर को धरती से विलुप्त हो जाने दो ,हमें तो दुष्ट कौरवों के खून पीनेवाला भीम और गुलामी की जंजीर से जकड़े कर्ण का वध करने वाला अर्जुन चाहिए —
रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ ,जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा ,लौटा दे अर्जुन ,भीम वीर
सृजन और पोषण के प्रतीक क्रमशः ब्रह्मा और विष्णु का प्रतिकार करते हुए वे संहारक शक्ति से सम्पन्न विनाशलीला रचनेवाले शंकर का आह्वान करते हैं –
कह दे शंकर से आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे ,हर हर बम का फिर महोच्चार
सच है अत्याचार और अतिचार के विरुद्ध हिंसक वृत्ति को जगाना जरूरी होता है ।कलम ,सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए तलवार का तेज चमकाना अनिवार्य होता है –
लहू गर्म रखने को रक्खो मन में ज्वलित विचार
हिंस्र जीव से बचने को चाहिए किंतु तलवार
दिनकर आगाह करते हैं कि कपिलवस्तु से उठी सत्य और अहिंसा की रोशनी के रहते चित्तौड़ में ज्वाल वसंत क्यों हुआ –
किन द्रौपदियों के बाल खुले ,किन किन कलियों का अंत हुआ
कह हृदय खोल चित्तौड़ यहाँ कितने दिन ज्वाल वसंत हुआ
हर किसी को जीत की कामना होती है ,पर इसके लिए हमें अंतर में स्वातंत्र्य भाव जगाना होगा ।जब स्वातंत्र्य भाव जग जाता है ,तब पराजय का प्रश्न ही नहीं है –
स्वातंत्र्य तरंगों की उमंग नर में गौरव की ज्वाला है
स्वातंत्र्य भाव की ग्रीवा में अनमोल विजय की माला है
दिनकर कहते हैं –
स्वातंत्र्य भाव नर का अदम्य ,वह जो चाहे कर सकता है
शासन की कौन बिसात ,पाँव विधि की लिपि पर धर सकता है
लेकिन स्वतंत्रता के लिए हमें कभी कभी अपनी मायावी बुभुक्षा का मोह राणा प्रताप की तरह त्यागना पड़ता है ,क्योंकि यह बुभुक्षा हमें आदमी रहने नहीं देती —
है कौन पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
झेलेगा वह बलिदान ,भूख की घनी चोट सह पायेगा
आ पड़ी विपद् तो क्या प्रताप सा घास चबा रह पाएगा
नर हो या नारी ,काम और वासना की ज्वाला उनकी मानवता के तेज को खत्म कर देती है । पुरुरवा के ब्याज से दिनकर कहते हैं –
चाहिए देवत्व पर इस आग को धर दूँ कहाँ पर
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर
वह्नि का बेचैन यह रसकोश बोलो कौन लेगा
आग के बदले मुझे संतोष बोलो कौन देगा
जब कामनाओं का यह ज्वार बलवान् हो जाता है ,तब शौर्य कराहने लगता है –
पर न जाने बात क्या है ?
इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है
फूल के आगे वही असहाय हो जाता
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता
इसीलिए नीलकुसुम में दिनकर आगाह करते हैं –
है यहाँ तिमिर आगे भी ऐसा ही तम है
तुम नील कुसुम के लिए कहां तक जाओगे
जो गए अभी तक कभी नहीं वे लौट सके
नादान मर्द क्यों अपनी जान गँवाओगे
आज हमारे नौनिहाल कर्त्तव्य -पथ पर कामनाओं के नीलकुसुम के व्यामोह में उलझ जा रहे हैं ,जिससे उनका शौर्य मर जा रहा है ।हमें कलम के विचारों को और करस्थ तलवारों को जिंदा रखने के लिए नीलकुसुम का मोह तो त्यागना ही होगा ।
दिनकर ने किसानों के दर्द को भी लिखा
-धूप हो कि घाम हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
सैनिकों के बलिदान को व्यक्त किया –
वनिता की ममता न हुई ,सुत का न कभी कुछ मोह हुआ
ख्याति सुयश सम्मान विभव का त्योंही कभी न मोह हुआ
सविते देखा विजय विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना
सैनिकों के इस दर्द को महसूस करते हुए दिनकर लिखते हैं –
जो चढ़ गए अस्थि वेदी पर लिए बिना गर्दन की मोल ,कलम आज उनकी जय बोल
इसतरह दिनकर की निगाह में कलम और बलिदान का साथ ही देश की अस्मिता का प्रतीक होता है । साथ छूटना अपराध और अन्याय को प्रश्रय का प्रतीक है –
जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध ।
विजय के गुरूर पर इतराने वालों को लिखा-
चलते समय सिकंदर से विजयी को कर मलते देखा
दिनकर अंत में हरिनाम जप पर पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं –
” हारे को हरिनाम ”
सचमुच दिनकर एक क्रान्तिद्रष्टा थे । हमें उनकी कविताओं को धर्मसंहिता की तरह आदर देना चाहिए ।

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