राज्यविदेश

नेपाल से काहे का विवाद

 

 

आप जपते रहिए। नेपाल से हम अलग नहीं। हमारे खून का संबंध हैं। सांस्कृतिक विरासत समान है। रोटी-बेटी का रिश्ता है लेकिन सियासत की जमीन पर उपजा विवाद इससे हल नहीं होने वाला। ऐसे किसी जाप से बचने की चाहत से, दूर की चाल चलने वाले दुश्मन की सेहत को कोई फर्क नहीं पड़ता। खासकर तब जब वह खामोशी से आपको डिप्लोमेसी के अखाडे में चारो खाने चित्त कर गया है। नेपाल जब आंखें तरेर रहा है। भारत के हिस्से को अपना बताने वाला नया मैप जारी कर चुका है। भारतीय सेना के गोरखाओं को भड़काने की कुटिल चाल चल रहा है। इस विपरीत वक्त में सब ठीक हो जाएगा का खुद को दिलासा देना बिल्ली को देख कबूतर के आंख बंद करने जैसा है।

हंगामा क्यों बरपा है। हुआ क्या है। इसपर फोकस करने से पहले थोड़ी इतिहास की बात करें। क्योंकि भविष्य का रास्ता इतिहास के गर्भ से ही निकलता है। बात 204 साल पुरानी है। 1816 में अपने राजकाज को निर्बाध रखने के लिए चतुर अंग्रेजों ने प्रतापी गोरखा विद्रोहियों को मजबूत संधि से बांध लिया। नाम दिया सुगौली संधि। इस संधि में विषाद की जड़ है। नेपाल कह रहा है संधि से पहले उसके प्रभाव का दायरा बड़ा था। भारत भलमनसाहत में कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है कि सुगौली संधि में कपटी अंग्रेजों ने बड़ी भारतीय आबादी और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थलों को नेपाल के हवाले कर दिया। वहां के लोगों को इस संधि का हर्जाना हाल के वर्षों तक चुकाना पड़ा। भला हो लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सुधारों का कि आबादी के दबाव में भेदभाव की नीति पर ग्रहण लगता जा रहा है।

इतिहास गवाह है कि मौजूदा बिहार की सुगौली में हुए इस संधि में बिहारियों के साथ ही अन्याय हो गया। उस संधि में अंग्रेजों ने आज के उत्तराखंड के कुमाऊं व गढवाल और पूरब के सिक्किम व दार्जलिंग को गोरखा आक्रांताओं से मुक्ति दिला दी। उसे ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना लिया। लेकिन उस वक्त मिथिला, भोजपुर और कथित अवध प्रांत के पूरबियों की बात मजबूती से रखने वाला कोई न था।

संधि के खिलाफ आशंका मिथिला के मुखर होने की हो सकती थी। उसका जुगाड अंग्रेजों ने कर लिया था। वहां के राजा को इंग्लैंड परस्त महत्वाकांक्षा ने ब्रिटिश सल्तनत के साथ बंधा दिया। तथ्य है कि संधि पर चुप रहने के एवज में ब्रिटिश प्रतिनिधि विलियम बेंटिक ने 1816 में ही मिथिला नरेश आनन्दकेश्वर सिंह को ‘महाराजा बहादुर’ का दर्जा दिया। इससे खुश महाराजा बहादुर ने मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी जनकपुर- बिराटनगर -कपिलबस्तु समेत कई महत्वपूर्ण इलाके को नेपाल के साथ ही रह जाने दिया।

नेपाल के साथ रह गए मिथिला के लोग ठगे रह गए। मिथिला के अलावा आज भोजपुर और अवध के लोग जिस अलग प्रांत की बात करते हैं पता नहीं उनको कटोचता है या नहीं कि काश उनके प्रतिनिधि इतिहास में सक्रिय रहते। कुमाऊं- गढवाल, सिक्किम-दार्जलिंग की तरह ही उनके लिए भी कोई कहने वाला रहा होता। तो तब गोरखाशून्य आबादी वाला तराई का इलाका नेपाल के साथ नहीं होता। सुगौली संधि की वजह से नेपाल के साथ रहने को मजबूर किए गए तराई के लोगों के साथ अंतहीन भेदभाव चलता रहा। भारत औऱ नेपाल के मध्य फंसे इन लोगों ने कालातंर में खुद को मधेशी कहलाना पसंद किया। मधेस के इन लोगों के साथ राजधानी काठमांडू में बसे लोग भेदभाव करते रहे। कहा तो यहां तक जाता है कि मधेसियों के साथ मवेशियों जैसा व्यवहार होता रहा।

मधेस के लोग के लिए 1950 तक काठमांडू घाटी में प्रवेश के लिए परिमिट दिया जाता। परिमिट के बिना घाटी में प्रवेश करने वालों को मुखे कानून छअ के तहत कठोर दंड का भागी बनना पड़ते था। भारत की आजादी के साथ मधेस के लोग अपनी आजादी के लिए ललचाई नजर से देखने लगे। अमानवीय अपमान और जलालत की जिंदगी से उबरने की आस जगी। नेहरू काल में उसका रास्ता निकला। नेपाल के राजा त्रिभुवन को रांची के नेपाल हाउस में बुलाया गया।मधेसियो के साथ सौतेले व्यवहार को बदलने के लिए कहा गया। तदंतर में चरणबद्ध तरीके से बदलाव आया। हालात बदलने में नेपाली मूल के लोगों की तुलना में मधेसियों की ज्यादा आबादी ने कारगर काम किया। परमिट के जरिए मधेसियों के काठमांडू घाटी में प्रवेश की प्रथा खत्म हुई।

मौजूदा हालात में सुगौली संधि वैसी ही हडबडी में की गई है संधि लगती है जैसा कि 1984 में ब्रिटेन ने हांगकांग को छोड़ते वक्त चीन के साथ किया था। छत्तीस साल के अंदर ही चीन ने उस संधि को तोडते हुए हांगकांग की स्वायत्तता को खत्म करने का एकतरफा फैसला कर लिया है। उसके खिलाफ पूरा हांगकांग आंदोलित है। इस आंदोलन को ब्रिटेन, कनाडा औऱ अब अमेरिका का पूर्ण समर्थन हासिल है।

सुगौली संधि की आड़ में नेपाल ने नया फसाद खड़ा किया है। इसके पीछे चीन का हाथ होने की आशंका से भरा सेना प्रमुख का बयान पूरी तरह सही है। लिहाजा इसका आसान अंत नहीं लगता। बात 204 साल पुरानी है। अबतक जमीन में दबी थी। भारत बहुत हल्के से लेता रहा। शनै शनै डिप्लोमेसी टांय टांय फिस्स होती रही। सियासत पर पड़क शिथिल पड़ते रहे। परवाह करने वाले किनारे लगते गए,तो जाकर बड़ा बवाल फन काढे बाहर निकल आया।

बिल में बबाली आका ने चीन ने लगातार पानी भरने का काम जारी रखा। जबकि हमारी डिप्लोमेसी चीन के खेमे में आते जाते रहे नेपाली नेताओं को खुश रखने की तात्कालिक नीति पर केंद्रित रही। अब यह काम करना बंद कर दिया है। नए नेपाल में चीन के बढते प्रभाव की कहानी 1991 से शुरु होती है। तब चीन की दखल पर कम्युनिस्टों ने आपस में हाथ मिलाया। दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों ने नेपाली कांग्रेस को टक्कर देने के लिए हाथ मिला लिया। एक हो गई। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेलिनवादी) को जन्म हुआ। इस खेल में शाही घराने और भारतीय कम्युनिस्टों का बड़ा योगदान रहा। क्योंकि शाही घराना नेपाली कांग्रेस के लोकतंत्र के उग्र होते आग्रह से परेशान था। नेपाली कांग्रेस की वजह से शाह को अपने डोलते तख्त का खतरा दिखने लगा था। इसलिए वह लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेपाली कांग्रेस का विकल्प खड़ा करने के हिमायती रहे। तो दूसरी ओऱ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में दुनिया में लाल सलाम बोलने वालों की तादाद बढाने की जिद थी।

सही अर्थों में यह नेपाल की राजनीति में चीन के प्रभावी दखल की शुरुआत थी, जो दबते-थमते उफनकर खड़ा हो गया। कम्युनिस्टों की अंदरुनी राजनीति में दिग्गजों को किनारे लगाने में मृदुभाषी केपी ओली बड़े खिलाड़ी साबित हुए। चीनी अर्थनीति के प्रखर विरोधी रहे उग्र वामपंथी नेता पुष्पदहल कमल प्रचंड की राजनीति तेल बेचने में लगा दिया। बाबूराम भट्टरई को बचकानी डिप्लोमेसी खा गई। ओली ने कामरेड माधव नेपाल और झलनाथ खनाल जैसे यूएमएल के खुर्राट नेताओं को घर में सुला दिया। कम्युनिस्टों में गरीब नेपाल पर मजबूत जमीनी पकड से हवा हवाई नेपाली कांग्रेस के नेताओं को ठिकाने लगा दिया।मुख्यधारा की राजनीति में लौटना अब कई दिग्गजों के दिवास्वप्न बन गया है।

नेपाली सियासत में आज का सच है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेलिनवादी) का राज है। उनके नेताओं का चीन से बरसों पुराना गहरा नाता है। कामरेड केपी ओली प्रधानमंत्री और उनकी साथी कामरेड विद्या भंडारी राष्ट्रपति हैं। बाकी उनके पिछलग्गू हैं। कामरेड ओली ने जिस तरह तब के प्रधानमंत्री माधव नेपाल औऱ झलनाथ खनाल के लिए आंतरिक चुनौती पेश की थी। वैसी चुनौती उनके जीते जी कोई पेश कर पाएगा, ऐसा कतई नहीं दिख रहा। ऐसे में भारतीय राजनयिकों की किस पर भरोसा करें? किस पर नहीं? यह दुविधा दिन प्रतिदिन दुरूह होती जाएगी।

-आलोक कुमार

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