दो विविध संस्कृतियों को पास लाने का अद्वितीय प्रयास है ‘काशी तमिल संगमम्’
डॉ. विपिन कुमार (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में वाराणसी में ‘काशी तमिल संगमम्’ का शुभारंभ किया। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित इस समागम का उद्देश्य तमिलनाडु एवं काशी, जो भारत के दो सबसे महान और प्राचीन ज्ञान केन्द्र हैं, के हजारों वर्ष पुरानी कड़ियों का पुनः अन्वेषित करने, एक सूत्र में पिरोने और संवर्धित करने का है।
इस समागम का आरंभ बीते 17 नवंबर से हुआ और इसका समापन आगामी 16 दिसंबर को होगा। आज जब पूरा देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है, तो एक महीने तक चलने वाला यह आयोजन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प को सुदृढ़ तो करेगा ही। साथ ही, तमिल भाषा के विकास में भी सहायक सिद्ध हो, जो हमारी सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है।
इस समागम के उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि काशी और तमिलनाडु दोनों शिवमय हैं, दोनों शक्तिमय हैं. एक स्वयं में काशी है, तो तमिलनाडु में दक्षिण काशी है. काशी-कांची के रूप में दोनों की सप्तपुरियों में अपनी महत्ता है। एक तरफ काशी हमारी सांस्कृतिक राजधानी है, तो वहीं दूसरी ओर हमारी प्राचीनता और गौरव का केंद्र – तमिलनाडु और तमिल संस्कृति है। ये संगम भी गंगा यमुना के संगम जितना ही पवित्र है।
वास्तव में हमारे समाज में संगमों का एक अद्वितीय महत्व रहा है। नदी हों चाहे विचारधारा, ज्ञान-विज्ञान हो या सांस्कृतिक विमर्श, हमने दो धाराओं के मिलन का हमेशा जश्न मनाया है और काशी तमिल संगमम् का इस दिशा में एक विशेष स्थान है।
गौरतलब है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित इस समागम को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों का सहयोग मिल रहा है।
इस समागम में काशी और तमिलनाडु के विविध पारंपरिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा, विशेषज्ञों के कई बैठकों और परिचर्चाओं का भी आयोजन किया जाएगा।
ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि काशी और तमिलनाडु के बीच हजारों वर्षों से एक गहरा संबंध रहा है। एक ओर, चोल वंश के प्राप्त शिलालेखों में काशी का उल्लेख स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके अलावा, तमिलनाडु के कई स्थानों पर विश्वनाथ मंदिर और विशालाक्षी मंदिर भी बने हैं।
वहीं दूसरी ओर, काशी में आज भी एक बड़ी तमिल आबादी रहती है। वे काशी विश्वनाथ मंदिर से संबंधित हैं और हर साल काशी के हजारों लोग अपनी धार्मिक आस्था के कारण रामेश्वरम जाते हैं और दक्षिण भारतीय काशी आते हैं। इस मठ को बाद में तंजावुर में प्रतिस्थापित किया गया, लेकिन आज भी इसे काशी मठ के नाम से ही जाना जाता है।
आज जब दक्षिण भारत में उपराष्ट्रीय शक्तियां बेहद मजबूत हो चुकी हैं और यहाँ उत्तर भारतीयों को बेहद संदिग्ध रूप से देखा जाता है तो ‘काशी तमिल संगमम्’ अपने-आप में एक बेहद ही सार्थक प्रयास है।
हालांकि, कई कथित विशेषज्ञों को यह आयोजन पसंद नहीं आ रहा है और वे इसे एक राजनैतिक कार्यक्रम घोषित करने पर अमादा हैं। उनका दावा है कि आज जब तमिलनाडु में हिन्दी विरोध अभी थमा नहीं है, तो भारतीय जनता पार्टी इस आयोजन के माध्यम से अपनी छवि बनाना चाहती है। लेकिन यह वास्तव में एक ऐसा आयोजन है, जिससे काशी के लोगों को तमिल संस्कृति की महानता की जानकारी होगी। दो अलग-अलग संस्कृतियों के लोग पास आएंगे और एकता की अनुभूति करेंगे।
इस आयोजन से आर्य और द्रविड़ समाज से जुड़ी संकल्पना को भी चुनौती मिलेगी, जिसके माध्यम से कुछ कथित इतिहासकारों द्वारा भारतीयता की अवधारणा को तोड़ने का प्रयास किया गया। क्योंकि, उन इतिहासकारों के अनुसार, आर्य और द्रविड़ – दो अलग-अलग संस्कृतियां हैं, तो दक्षिण भारत के लोग प्राचीन काल से ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के लिए उत्तर भारत का भ्रमण क्यों करते रहे?
आज दक्षिण भारत का कोई भी श्रद्धालु जब भी काशी विश्वनाथ मंंदिर का दर्शन करता है, तो वह अपनी यात्रा को संपूर्ण बनाने के लिए प्रयागराज के पवित्र संगम पर स्नान जरूर करता है और हर वर्ष फाल्गुन मास के महाशिवरात्रि के दिन काशी की गलियां कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के तीर्थयात्रियों से भरी रहती हैं। ये तथ्य साफ तौर पर आर्यों और द्रविड़ों के बीच बँटबारे की अवधारणा को चुनौती देते हैं और ‘काशी तमिल संगमम्’ जैसे आयोजन उत्तर और दक्षिण भारतीय दिलों में किंचित दूरियों को मिटाने में बेहद कारगर साबित होंगे। ऐसा हमारा पूर्ण विश्वास है।