संवाद

चीनी विस्तारवाद और मोदी की आक्रामक नीति – प्रो. रामदेव भारद्वाज,(लेखक अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति है।)

चीन का चरित्र मूलतः अविश्वसनीय है, संदेहास्पद, भ्रामक और कपटपूर्ण है।

प्रो. रामदेव भारद्वाज-अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति है।
         
चीन का चरित्र मूलतः अविश्वसनीय है, संदेहास्पद, भ्रामक और कपटपूर्ण है। चीन कूटनीति का चतुर खिलाड़ी है। चीन जो दिखता है वह नहीं है औऱ जो है वह दिखता नहीं है। चीनी राजनय विश्व के प्राचीनतम राजनयों में एक है। वह अपने शत्रु से भी शत्रुता प्रदर्शित नहीं करता। चीन में एक प्राचीन राजनयिक सूक्ति है “अगर आप किसी को धोखा देना चाहते हो तो पहले उसको अपना मित्र बनाओ, उसका विश्वास जीतो, उससे पूरा-पूरा लाभ लो और फिर घात करो, धोखा दो, उसे कलंकित और बदनाम करो। आज चीन की नीतियों और इसके व्यवहार अर्थात् वैश्विक संबंधों में चीन का मौलिक चरित्र चरितार्थ होता हुआ नजर आ रहा है। चीन की विदेश नीति, राजनय और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषता है कि दक्षिण एशिया में भारत के सभी पड़ोसियों के साथ उसके बहुत ही मधुर और विश्वनीय संबंध है वहीं भारत के साथ संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैंं और संबंधों में सहयोग कम और विवाद अधिक की स्थिति बनी रहती है।  चीन का विवादों के साथ गहरा अन्योन्याश्रित संबंध है। इतिहास साक्षी है कि जहां चीन की उपस्थिति है और वहां विवाद न हो ऐसा संभव नहीं।
सीमा विवादों पर चीन के तर्क :::::
चीन की भौगोलिक सीमाएंं 14 पड़ोसी देशों के साथ लगभग 22 हजार किलोमीटर तक लगती है। परन्तु आश्चर्यजनक तो यह है कि चीन का इन सभी 14 देशों के साथ सीमा विवाद रहा है। चीन का इन पड़ोसी राष्ट्रों में युद्ध का भय दिखता है। भारत से जमीनी और समुद्री तथा जापान, वियतनाम और फिलीपींस के साथ समुद्री सीमा को लेकर उसका गहरा विवाद है। कुल मिलाकर चीन का 23 देशों के साथ विवाद चल रहा है। यद्धपि चीन ने अपने 13 पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद सुलझा लिया है परन्तु भारत के साथ चीन का सीमा विवाद अभी भी है।
(1) तजाकिस्तान: चीन का कहना है कि तजाकिस्तान पर 1644 से 1912 के बीच चीन के किंग राजवंश का शासन रहा है। इस लिहाज से तजाकिस्तान पर उसका हक है।
(2) किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान : साथ ही चीन का दावा है कि किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान के बड़े हिस्से पर उसका अधिकार है, क्योंकि 19वीं सदी में उसने इस भू-भाग को युद्ध में जीता था।
(3) अफगानिस्तान: चीन और अफगानिस्तान के बीच 92.45 किलोमीटर लंबा बार्डर है। इस बार्डर पर पड़ते बदखशां प्रांत के वखन क्षेत्र पर अफगानिस्तान का राज है। इस क्षेत्र को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद बहुत पुराना है। वर्ष 1963 में समझौते के बावजूद चीन अफगानिस्तान के बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य जताता रहा है।
4) पाकिस्तान: चीन का अपने घनिष्ठ मित्र देश पाकिस्तान के साथ भी सीमा को लेकर विवाद है लेकिन पाकिस्तान चीन के आगे सरेंडर कर चुका है। जिस तरह से चीन इकॉनामिक कॉरिडोर बना रहा है। वो आने वाले वक्त में पाकिस्तान को सबसे बड़ा नुकसान साबित होगा।
(5) नेपाल: नेपाल के बड़े हिस्से पर चीन अपनी दावेदारी ठोकता है और ये विवाद नया नहीं बल्कि 1788 से 1792 के बीच चीन और नेपाल के बीच हुए युद्ध के समय का है। चीन कहता है कि नेपाल-तिब्बत का हिस्सा है इस लिहाज से नेपाल चीन का हुआ।
(6) भूटान: मौजूदा समय में भूटान के डोकलाम में चीन हस्तक्षेप कर रहा है। वहीं भूटान के एक बड़े भू-भाग पर चीन की दावेदारी रही है। दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर कई दौर की बातचीत हो चुकी है। इसके बावजूद मसला सुलझने की बजाय उलझ गया है।
(7) म्यांमार: पिछले पांच साल से चीन करीब 35 देशों को हथियार एक्सपोर्ट कर रहा है। इसके खरीददार देशों में मुख्य रूप से कम आय वाले देश शामिल हैं। चीन के हथियार निर्यात का करीब तीन चौथाई हिस्सा केवल पाकिस्तान और म्यांमार को जाता है। दूसरी तरफ म्यांमार के साथ चीन की सीमा लगती है। चीन के युआन राजवंश के समय बर्मा (अब म्यांमार) चीन का अंग हुआ करता था। इतिहास को आधार मानते हुए चीन ने म्यांमार के एक बड़े भू-भाग पर अपनी दावेदारी कर रखी है।
(8) लाओस: चीन के मुताबिक युआन राजवंश के शासनकाल में लाओस पर उसका अधिकार रहा है। यही वजह है कि चीन अब भी लाओस को अपना हिस्सा मानता है। चीन खुले तौर पर कहता रहा है कि ताईवान चीनी गणराज्य का हिस्सा है। हालांकि ताईवान इस बात का पुरजोर विरोध करता रहा है
(9) वियतनाम: चीन के मुताबिक वियतनाम पर भी उसका हक है क्योंकि एक समय चीन के मिंग राजवंश (1368-1644) का यहां शासन रहा था। कहा जाता है कि वियतनाम और अमरीका में अच्छी मित्रता रही है लेकिन बाद में वियतनाम चीन के पाले में चला गया लेकिन फिर चीन उसकी भूमि पर अपना हक जताता है।
(10) उत्तर कोरिया: कोरिया-अमेरिका के बीच कभी दोस्ताना संबंध भी रहा है। 1882 तक दोनों देशों के बीच उच्च स्तर पर व्यापारिक संबंध स्थापित थे और दोनों में 1905 तक बेहतर संबंध रहे हैं। कोरिया के विभाजन के बाद उत्तर कोरिया और चीन में मैत्रीपूर्ण संबंध पैदा हो गए। कहा जाता है कि उत्तर कोरिया के इतनी बड़ी सैन्य ताकत बनने और उसके परमाणु मिसाइल कार्यक्रम के पीछे सबसे बड़ा हाथ चीन का है मगर इसके बावजूद चीन उत्तर कोरिया के जिन्दाओ इलाके पर अपनी दावेदारी पेश करता रहा है।
(11) मंगोलिया: चीन का मानना है कि युआन राजवंश के शासनकाल में मंगोलिया भी उसका हिस्सा रहा है। हालांकि सच्चाई यह है कि मंगोलिया के चंगेज खान ने चीन पर अपना आधिपत्य जमा लिया था।
(12) रूस: हालांकि आज चीन को रूस का महत्वपूर्ण सामरिक सहयोगी माना जाता है लेकिन रूस और चीन के आपसी संबंध हमेशा शांतिपूर्ण नहीं रहे हैं। रूस के साथ लगती कई वर्ग किलोमीटर सीमा पर चीन अपनी दावेदारी जता चुका है। दोनों देशों के बीच कई समझौते हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई नतीजा नहीं निकल सका। रूस और चीन के बीच 1969 में सीमा को लेकर लड़ाई हो चुकी है। विश्व की इन दोनों बड़ी ताकतों के बीच इससे पहले कभी इतने बड़े स्तर पर युद्ध की संभावना सामने नहीं आई थी। हालांकि जैसा कि रूस के इतिहास में अक्सर होता आया है, युद्ध में रूस को जो बढ़त मिली थी, उसे शांति वार्ता के दौरान गंवा दिया गया। इसके बाद 1969 के शरदकाल में दोनों देशों के बीच बातचीत हुई जिसमें यह तय किया गया कि चीनी और सोवियत सीमारक्षक उसुरी नदी के तटों पर रहेंगे और इनमें से कोई भी पक्ष दमानस्की द्वीप में प्रवेश नहीं करेगा।
(13) कजाखिस्तान: चीन का अपने सीमावर्ती कजाखिस्तान के साथ भी सीमा विवाद है। हालांकि हाल ही में दोनों देशों के बीच समझौते हुए हैं जो चीन के पक्ष में गए हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया में विस्तार ::::
दक्षिण पूर्व एशिया में चीन अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाह रहा है। इन देशों को चीन आर्थिक, सामरिक एवं अन्य प्रकार की मदद देकर इन राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाह रहा है। कुछ राष्ट्रों ने तो चीन को लीज पर अपनी ज़मीन भी दे रखी है, चीनी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दक्षिण पूर्व ऐशियाई राष्ट्रों में संचालित भी है। चीन फिलीपींस, कम्बोडिया की जमीन पर भी अपना हक जता रहा है। दक्षिण चीन सागर में कुछ तटीय द्वीपों पर ब्रुनेई का कब्जा रहा है। हालांकि, चीन को लगता है कि यह उसका इलाका है। दक्षिण चीन सागर के कुछ इलाकों पर इंडोनेशिया का अधिकार है, जबकि चीन का कहना है कि यह पूरा इलाका उसका है। सिंगापुर के साथ चीन का विवाद दक्षिण चीन सागर को लेकर ही है। चीन यहां मछली मारने को लेकर कई बार सिंगापुर से अपनी आपत्ति दर्ज करा चुका है।दक्षिण चीन सागर में जिन तटीय द्वीपों पर मलेशिया का अधिकार होना चाहिए, चीन उन्हें अपना मानता है।
चीन की एकाधिकारवादी महत्वाकांक्षा :::
चीन के विस्तारवाद और फिर एकाधिकारवाद की प्रवृत्ति‍ की समीक्षा करें तो चीन के जापान और दक्षिण कोरिया के साथ भी विवाद है।
(A) जापान (सेनकाकू द्वीप समूह पर चीन-जापान में विवाद) : चीन के अपने उत्तरी-पूर्वी इलाके में पिछले दिनों युद्धाभ्यास के बाद जापान की सेना ने भी मियाकोजियमा द्वीप पर सतह से हवा और समुद्र में युद्धपोतों को तबाह करने वाली मिसाइलों को तैनात किया है। यही नहीं जापान की सेना ने 340 सैनिकों को भी तैनात किया है। यद्धपि सेनकाकू एक निर्जन द्वीप समूह है, जो पूर्वी चीन सागर में स्थित है। यह द्वीप समूह वर्षों से जापान के प्रशासनिक क्षेत्र का हिस्सा है, लेकिन चीन इस पर अपना दावा जताता रहा है। चीन का कहना है कि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले यह द्वीप समूह चीन के कब्जे में था, इसलिए वह कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि यह जापान का क्षेत्र है।
चीन सेनकाकू द्वीप पर उसका ऐतिहासिक अधिकार मानता है। चीन का कहना है, वर्ष 1874 तक यह द्वीप चीन का बंदरगाह शहर रहा है। इसे लेकर सन् 1900 में साईनो-जापान युद्ध-1 तक हो चुका है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यह द्वीप युनाईटेड स्टेट्स का हिस्सा भी बन चुका है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान ने इसे अमेरिका के सुपुर्द कर दिया था और बाद में अमेरिका ने इसे 1972 में जापान को सौंप दिया था।
जापान सेंकाकू द्वीप समूह पर सरकारी कर्मचारियों की तैनाती पर विचार कर रहा है। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग ली ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा ‍कि, “चीन सरकार की देश की क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा करने का अडिग संकल्प और प्रतिबद्धता है। चीन अपनी संप्रभुता के बारे में किसी भी उकसावे को बर्दाश्त नहीं करेगा। चीन की समुद्री निगरानी बेड़े ने दियावोयू द्वीप के जलक्षेत्र में अवैध रूप से दाखिल होने वाले जापानी पोतों को बाहर कर दिया। चीन ने विवादित क्षेत्र में चार तटरक्षक जहाजोंं को स्थापित किया है जो हथियारों से लैस है।
(B) दक्षिण कोरिया: दक्षिण कोरिया पूर्वी चीन सागर में कई इलाकों पर लंबे समय से अपना कब्जा जमाए हुए हैंं। हालांकि चीन का कहना है कि पूरे दक्षिण कोरिया पर उसका हक है। यहां उसने ऐतिहासिक तथ्यों का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि दक्षिण कोरिया पर चीन के युआन राजवंश का शासन रहा था।
(C) हांगकांग में चीन : चीन और हांगकांग के बीच तनाव का मुख्य कारण चीनी सरकार का वह नया कानून है, जिसके अंतर्गत हांगकांग के अपराधियों को चीन को सौंपना पड़ेगा। ऐसा क्यों ? इसलिए कि चीन समझता है कि हांगकांग उसका हिस्सा है जबकि हांगकांग मानता है कि उसकी बहुसंख्या चीनी जरुर है लेकिन वह चीन के अन्य प्रांतों की तरह चीन का प्रांत नहीं है, क्योंकि जब 1997 में वह ब्रिटेन के डेढ़ सौ साल के राज से मुक्त हुआ तो इस शर्त पर कि ‘एक देश और दो व्यवस्थाएं’ चलेंगी याने वह चीन के साथ रहते हुए भी स्वायत्त रहेगा। यह व्यवस्था 2047 तक चलेगी, लेकिन अब चीन हांगकांग को अपने प्रांतों की तरह अपने आधीन बनाने पर तुला हुआ है। चीन की इस कार्रवाई को लेकर हांगकांग में जबरदस्त जन-आंदोलन खड़ा हो गया है। लाखों लोग इन अहिंसक प्रदर्शनों में सड़क पर उतर आए हैं। यदि चीनी सरकार ने हांगकांग को अपने कब्जे में ले लिया तो अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने उसे जो विशेष दर्जा दे रखा है, उसे वे रद्द कर देंगे। इससे हांगकांग की अर्थव्यवस्था ही चौपट नहीं हो जाएगी बल्कि वहां रहने वाले हजारों गैर-चीनी लोग भाग खड़े होंगे। भारत और अमेरिका के वीजा-इच्छुकों की लंबी कतारें लगनी अभी से शुरु हो गई हैं। जाहिर है कि इस विवाद में भारत किसी भी देश के साथ उलझना नहीं चाहेगा, लेकिन यह भी शक है कि इन दिनों कोरोना की अंतरराष्ट्रीय बदनामी और अपनी अंदरुनी मुसीबतों से चीनी लोगों का ध्यान हटाने के लिए चीन ने हांगकांग और भारत-चीन सीमा-विवाद का नया राग छेड़ दिया हो।
(D) ताइवान: ताइवान पूर्वी एशिया का एक देश है। यह ताइवान द्वीप तथा कुछ अन्य द्वीपों से मिलकर बना है। इसका प्रशासनिक मुख्यालय ताइवान द्वीप है। इसके पश्चिम में चीनी जनवादी गणराज्य (चीनी) उत्तर-पूर्व में जापान, दक्षिण में फिलीपींस है। 1949 में चीन के गृहयुद्द के बाद ताइवान चीन से अलग हो गया था परन्तु चीन अब भी इसे अपना ही एक असंतुष्ट राज्य कहता है।
१९५१ की सैनफ्रांसिस्को संधि के अंतर्गत जापान ने ताइवान से अपने सारे स्वत्वों की समाप्ति की घोषणा कर दी। दूसरे ही वर्ष ताइपी (Taipei) में चीन-जापान-संधि-वार्ता हुई। किंतु किसी संधि में ताइवान पर चीन के नियंत्रण का स्पष्ट संकेत नहीं किया गया। 1954 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़न हावर ने ताइवान के साथ आपसी रक्षा संधि पर भी हस्ताक्षर किए। 1971 में चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता मिल गई परन्तु चीन के दबाव में ताइवान की सदस्यता खारिज कर दी गई। चीन ने ताइवान को अपना प्रांत घोषित कर दिया। ताइवान में सन् 2000 के चुनावों में स्वतंत्र ताइवान समर्थकों की जीत हुई किंतु चीन ने चेतावनी दे दी कि उसे ताइवान की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं है। 2008 के चुनावों में सत्तारुढ़ दल की हार हुई और राष्ट्रपति मा यिंग जू के चीन समर्थक थे इसलिए चीनी प्रशासन ने भी सन् 2008 से ताइवान के प्रति अपना रुख नरम कर लिया और मा यिंग जू के कार्यकाल में चीन के साथ कई व्यापारिक और पर्यटन के समझौते किए।
2016 में साई इंग-वेन सत्ता में आई तब चीन ताइवान से बातचीत करने से इनकार करता रहा है।
मई 2020 ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के मौक़े पर कहा कि ”लोकतांत्रिक ताइवान चीन के नियम-क़ायदे कभी कबूल नहीं करेगा और चीन को इस हक़ीक़त के साथ शांति से जीने का तरीक़ा खोजना होगा।”
ताइवान की राष्ट्रपति साइ इंग-वेन के दूसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में सांसद राहुल कासवान ने सहभागिता की। इस पर चीन के राजदूत की काउंसलर लिउ बिंग ने लिखित आपत्ति जताते हुए भारत से अपने आंतरिक मामलों में दखल देने से बचने को कहा है। राजनयिक ने कहा कि इंग-वेन को बधाई देना बिलकुल गलत है। विदेश मंत्रालय का कहना है कि उनका देश उम्मीद करता है कि हर कोई ताइवान की आजादी के लिए चलाई जा रही अलगाववादी गतिविधियों को लेकर चीन के लोगों द्वारा विरोध का समर्थन करेगा। साथ ही राष्ट्रीय एकीकरण को समझेगा।
दक्षिणी चीन सागर—-
दक्षिणी चीन सागर चीन के दक्षिण में स्थित एक सीमांत सागर है। यह प्रशांत महासागर का एक भाग है, जो सिंगापुर से लेकर ताईवान की खाड़ी लगभग ३५,००,००० वर्ग किमी में फैला हुआ है। पाँच महासागरों के बाद यह विश्व के सबसे बड़े जलक्षेत्रों में से एक है। इस सागर में बहुत से छोटे-छोटे द्वीप हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से द्वीपसमूह कहा जाता है। सागर और इसके इन द्वीपों पर, इसके तट से लगते विभिन्न देशों का संप्रभुता की दावेदारी है। इन दावेदारियों को इन देशों द्वारा इन द्वीपों के लिए प्रयुक्त होने वाले नामों में भी दिखाई देती है।
चीन अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत दक्षिण सागर पर अपने एकाधिकार का दावा करता है लेकिन दक्षिण चीन सागर किसी एक देश की धरोहर न होकर एक प्रमुख वैश्विक व्यापारिक मार्ग है। साथ ही दक्षिण चीन सागर के तटवर्ती देश इस पर प्राकृतिक तेल, गैस, ऊर्जा, मत्स्य सुरक्षा इत्यादि हेतु निर्भर हैं। ऐसे में चीन द्वारा विवादित द्वीपों पर कब्जा और कृत्रिम द्वीपों के निर्माण के माध्यम से अपने क्षेत्र में वृद्धि करने की नीति और कृत्रिम द्वीपों पर नौसैनिक अड्डा बनाए जाने के कारण दक्षिण चीन सागर के तटीय देश (वियतनाम, फिलीपींस, ब्रूनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि) चीन से नाराज़ हैं। इसलिए ये तटवर्ती देश चीन से दूरी बना रहे हैं और भारत के साथ निकट सानिध्य महसूस करते हैं। ऐसे में चीन की विस्तारवादी मानसिकता के कारण तटवर्ती देश चीन के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं। इस प्रकार दक्षिण चीन सागर में चीनी वर्चस्व चीन को न केवल महाशक्तियों से अपितु उसके पड़ोसियों से भी दूर कर रहा है।
स्प्रैटली द्वीप समूह (Spratley Islands)::::
दक्षिणी चीन सागर में स्थित ७५० से अधिक रीफ़ों, समुद्र से बाहर उठने वाली चट्टानों, एटोलों और द्वीपों का एक द्वीप समूह है। इतू अबा (Itu Aba) इसका सबसे बड़ा द्वीप है। यह फ़िलिपीन्ज़ और पूर्वी मलेशिया के तटों से आगे दक्षिणी वियतनाम की तरफ़ जाते हुए एक-तिहाई रस्ते पर मौजूद हैं। इनमें कुल मिलकर चार वर्ग किमी ज़मीन से भी कम क्षेत्रफल है और यह ४,२५,००० वर्ग किमी के समुद्री क्षेत्र पर फैले हुए हैं। वैसे तो इन छोटे-से द्वीपों-रीफ़ों पर कोई मनुष्य नहीं रहता और इनका ज़्यादा आर्थिक मूल्य नहीं है लेकिन यह जिस भी देश के अधीन होंगे उसकी समुद्री सीमा बहुत विस्तृत हो जाएगी और संयुक्त राष्ट्र की समुद्री क़ानून संधि के अंतर्गत उनके नीचे मिलने वाले खनिजों पर और उसमें मौजूद मछलियों पर उस देश के विशेष अधिकार बन जाएंगे। फ़ौजी दृष्टि से भी उस देश की नौसेना अधिक क्षेत्रफल पर सक्रीय हो सकेगी। स्प्रैटली द्वीप समूह के इर्द-गिर्द के बहुत से देशों ने इन द्वीपों पर स्वामित्व होने का दावा किया है। चीन, वियतनाम, ताइवान, मलेशिया और फ़िलिपीन्ज़ ने लगभग ४५ टापुओं पर अपने फ़ौजी दस्ते भेजे हैं और इनमें आपसी तनाव बना रहता है। इनके नेता भी अख़बारों के ज़रिये इन द्वीपों के बारे में एक-दूूसरे से तू-तू मैं-मैं करते रहते हैं। ब्रुनेई देश ने यहाँ अपनी सेना तो नहीं भेजी लेकिन समुद्री क़ानून संधि के अंतर्गत यह स्प्रैटली समूह के दक्षिण-पूर्वी भाग को अपना आरक्षित आर्थिक क्षेत्र (ऍक्सक्लूसिव इकॉनॉमिक ज़ोन) बताता है।
भारत के साथ चीन के मध्य सीमा विवाद—-
भारत चीन के साथ 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा है। ये सीमाएं जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुज़रती है, जो तीन सेक्टरों में बंटी हुई है – पश्चिमी सेक्टर यानी जम्मू-कश्मीर, मिडिल सेक्टर यानी हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड और पूर्वी सेक्टर यानी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश। यद्धपि अब तक पूरी तरह से सीमांकन नहीं हुआ है अतः कई क्षेत्रों में सीमा विवाद है।
(1) अक्साई चिन—-
अक्साई चिन चीन, पाकिस्तान और भारत :::
भारत: भारत और चीन के बीच सीमा विवाद 1950 से पहले का चला आ रहा है। अक्साई चिन चीन, पाकिस्तान और भारत के संयोजन में तिब्बती पठार के उत्तर पश्चिम में स्थित एक विवादित क्षेत्र है। यह कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे स्थित है। ऐतिहासिक रूप से अक्साई चिन भारत को रेशम मार्ग से जोडऩे का जरिया था। भारत से तुर्किस्तान का व्यापार मार्ग लद्दाख और अक्साई चिन के रास्ते से होते हुए काश्गर शहर जाया करता था। 1950 के दशक से यह क्षेत्र चीन के कब्जे में है। भारत इस पर अपना दावा जताता है और इसे जम्मू व कश्मीर राज्य का उत्तर पूर्वी हिस्सा मानता है। अक्साई चिन जम्मू व कश्मीर के कुल क्षेत्रफल के पांचवें भाग के बराबर है। चीन ने इसे प्रशासनिक रूप से शिनजियांग प्रांत के काश्गर विभाग के कार्गिलिक जिले का हिस्सा बनाया है। सीमा विवाद को लेकर 1962 के युद्ध के बाद भारत के साथ चीन की कई बार झड़प हो चुकी है। एक बार फिर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं।
(2) अरुणाचल प्रदेश—–
पूर्वी सेक्टर में चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है। चीन कहता है कि ये दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है। चीन तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के बीच की मैकमोहन रेखा को भी नहीं मानता है। चीन का कहना है कि 1914 में जब ब्रिटिश भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों ने ये समझौता किया था, तब वो वहां मौजूद नहीं था। चीन का मानना है कि तिब्बत उसका हिस्सा रहा है। वास्तविकता यह है कि 1914 में तिब्बत एक स्वतंत्र यद्धपि कमज़ोर राष्ट्र था। लेकिन चीन ने तिब्बत को कभी स्वतंत्र मुल्क नहीं माना। 1950 में चीन ने तिब्बत को पूरी तरह से अपने क़ब्ज़े में ले लिया। तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री ने कहा कि लद्दाख भारत का अंग है। उन्होंने आजतक से कहा कि हम हमेशा से यह मानते रहे हैं कि लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम भारत के अंग हैं। उन्होंने अपने मौन को लेकर उठते सवालों पर कहा कि दलाई लामा पिछले 60 साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय फोरम में चीन के खिलाफ बोलते आए हैं। चीन के तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद हम भी कठिनाई में हैं। सांगेय ने कहा कि तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद ही दोनों देशों के बीच इसी को लेकर तनाव उत्पन्न है।
(3) सिक्किम: चीन सिक्किम सैक्टर के डोकलाम इलाके में सड़क बना रहा है। डोकलाम के पठार में ही चीन, सिक्किम और भूटान के बॉर्डर मिलते हैं। भूटान और चीन इस इलाके पर अपना-अपना दावा करते हैं। भारत इस विवाद में भूटान का साथ देता है। भारत में यह इलाका डोकलाम और चीन में डोंगलांग कहलाता है।
(4) LAC  पर चीनी का विस्तार:::
एलएसी तीन सेक्टर्स में बंटी है। पहला अरुणाचल प्रदेश से लेकर सिक्किम तक। दूसरा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड का हिस्सा। तीसरा है लद्दाख। भारत, चीन के साथ लगी एलएसी करीब 3,488 किलोमीटर पर अपना दावा जताता है, जबकि चीन का कहना है यह बस 2000 किलोमीटर तक ही है।
LAC दोनों देशों के बीच वह रेखा है जो दोनों देशों की सीमाओं को अलग-अलग करती है। दोनों देशों की सेनाएं एलएसी पर अपने-अपने हिस्से में लगातार गश्त करती रहती हैं। पैंगोंग झील पर अक्सर झड़प होती है। झील का 45 किलोमीटर का पश्चिमी हिस्सा भारत के नियंत्रण में आता है जबकि बाकी चीन के हिस्से में है। पूर्वी लद्दाख LAC के पश्चिमी सेक्टर का निर्माण करता है जो कि काराकोरम पास से लेकर लद्दाख तक आता है। उत्तर में काराकोरम पास जो 18 किमी लंबा है, यहीं पर देश की सबसे ऊंची एयरफील्ड दौलत बेग ओल्डी है। अब काराकोरम सड़क के रास्ते दौलत बेग ओल्डी से जुड़ा है। दक्षिण में चुमार है जो पूरी तरह से हिमाचल प्रदेश से जुड़ा है। पैंगोंग झील, पूर्वी लद्दाख में 826 किलोमीटर के बॉर्डर के केंद्र के एकदम करीब है। 19 अगस्त 2017 को भी पैंगोंग झील पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़प हुई थी।
डोकलाम संकट के बाद भारत द्वारा एलएसी (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) के पास अवसंरचनात्मक विकास किया जा रहा है। चीन इन गतिविधियों का विरोध करता है। लद्दाख में एलएसी के नजदीक भारत द्वारा निर्मित किए जा रहे पुल पर चीन को आपत्ति है। गलवान घाटी जहां चीन ने बंकर बनाने पर जोर दिया है, वहीं एलएसी स्थित है और इसके पास भारत ने शियोक नदी से दौलत बेग ओल्डी तक 235 किमी लंबे अति सामरिक महत्व के सड़क का निर्माण कार्य लगभग पूरा कर लिया है।
(5) दौलत बेग ओल्डी—–
दौलत बेग ओल्डी देपसांग पठार के अक्साई चिन के इलाके के पास है। भारत ने यहां निर्मित एयरबेस पर मालवाहक सी 130 और सी 17 जहाजों को पहले ही लैंड करा रखा है। विवादित इलाकों पर अपने अधिकार क्षेत्र के खोने का डर चीन को सता रहा है। सीमा सड़क के इस निर्माण कार्य को भारत सरकार और खासकर रक्षा मंत्रालय ने जिस संवेदनशीलता के साथ प्राथमिकता के तौर पर लिया है, उससे चीन कहीं ना कहीं हताश अवश्य हुआ है। भारत द्वारा सामरिक स्थलों पर पुलों, हवाई पट्टियों के निर्माण कार्य में सक्रियता दिखाना और भारत-चीन सीमा पर निगरानी चौकसी के लिए गश्त बढ़ाने की रणनीति ने चीन को एकतरफा आक्रोश में आने को विवश किया है। चीन यह मानता है कि इससे इस क्षेत्र में भारत द्वारा यथास्थिति को बदला जा रहा है, पर क्षेत्र में विवाद का कारण तो चीन की हिमालयन क्षेत्र के मानचित्र को बदल देने की जिद है।
(6) लद्दाख में चीन:::
चीन ने लद्दाख के पासनगारी कुंशा एयरपोर्ट पर पैंगयोंग लेक से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर तिब्बत में स्थित एक एयरबेस का निर्माण किया है। सैटेलाइट तस्वीर में रनवे को देखा जा सकता है तथा एयरबेस पर 4 लड़ाकू विमान खड़े दिख रहे हैं। सम्भावना है कि ये J-11 या J-16 हो सकते हैंं जो रूसी सुखोई-27 या सुखोई-30 के वैरिएंट हैं। यह चीन के प्रमुख लड़ाकू विमान हैं और भारतीय सीमा से केवल 200 किलोमीटर दूर इनकी तैनाती वाकई भारत के लिए चिंता का विषय है। पैंगोंग त्सो और गलवान घाटी में भारत की स्थिति मजबूत है। इन दोनों विवादित क्षेत्रों में चीनी सेना ने अपने दो से ढाई हजार सैनिकों की तैनाती की है और वह धीरे-धीरे अस्थायी निर्माण को मजबूत कर रही है। कई क्षेत्रों में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच तनाव की स्थिति बरकरार है और 2017 के डोकलाम गतिरोध के बाद यह सबसे बड़ी सैन्य तनातनी का रूप ले सकती है।
(7) चीन की विस्तारवादी फिंगर पॉलिसी :::
भारत और चीन के मध्य फिंगर 4 और फिंगर 8 को लेकर तनाव बना हुआ। पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर बंजर पहाड़ियां हैं। इन्हें स्थानीय भाषा में छांग छेनमो कहते हैं। इन पहाड़ियों के उभरे हुए हिस्से को ही भारतीय सेना ‘फिंगर्स’ कहती है। भारत का दावा है कि LAC की सीमा फिंगर 8 तक है। लेकिन वह फिंगर 4 तक को ही नियंत्रित करती है।
फिंगर 8 पर चीन का पोस्ट है। परन्तु चीन की सेना का मानना है कि फिंगर 2 तक एलएसी है। छह साल पहले चीन की सेना ने फिंगर 4 पर स्थाई निर्माण की कोशिश की थी, लेकिन भारत के विरोध पर इसे गिरा दिया गया था।
विगत कुछ वर्षों से चीन की सेना पैंगोंग झील के किनारे सड़कें बना रही है।1999 में जब पाकिस्तान से करगिल की लड़ाई चल रही थी उस समय चीन ने मौके का फायदा उठाते हुए भारत की सीमा में झील के किनारे पर 5 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई थी। इस क्षेत्र में पेट्रोलिंग के लिए चीनी सेना हल्के वाहनों का उपयोग करती है। गश्त के दौरान अगर भारत की पेट्रोलिंग टीम से उनका आमना-सामना होता है तो उन्हें वापस जाने को कह दिया जाता है। क्योंकि दोनों देशों की पेट्रोलिंग गाड़ियां उस जगह पर घुमा नहीं सकते। इसलिए गाड़ी को वापस जाना होता है। भारतीय सेना के जवान पैदल गश्ती भी करते हैं। अभी के तनाव को देखते हुए इस गश्ती को बढ़ाकर फिंगर 8 तक कर दिया गया है। मई में भारत और चीन के सैनिकों के बीच फिंगर 5 के इलाके में झगड़ा हुआ है। इसकी वजह से दोनों पक्षों में असहमति है। चीनी सेना ने भारतीय सैनिकों को फिंगर 4 से आगे बढ़ने से रोक दिया था। चीन के 5,000 जवान गलवान घाटी में मौजूद हैं।
तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसंग सांगे ने चीन की गैर आधिकारिक नीति फाइव फिंगर पॉलिसी को चीन की इस विस्तारवादी नीति का प्रमुख कारण माना था। इस नीति के तहत चीन का यह मानना रहा है कि तिब्बत उसकी हथेली है और अरुणाचल प्रदेश, भूटान, सिक्किम, नेपाल और लद्दाख के हिस्से उसके फाइव फिंगर यानी पांच अंगुलियां हैं। इसलिए इन क्षेत्रों पर कब्जा करने की चीन की चाहत नई नहीं है। चीन की फाइव फिंगर पॉलिसी के अंतर्गत ही चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण  कर उसके अक्साई चिन क्षेत्र पर अपना कब्जा भी कर लिया था। परन्तु   चीन के हितों को सबसे बड़ी चोट तब लगी जब पिछले वर्ष भारत ने जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत लद्दाख को केंद्र शासित क्षेत्र के रूप में घोषित किया। इससे यह क्षेत्र सीधे केंद्र सरकार की निगरानी में आ गया। चीन द्वारा तब इस पर गंभीर आपत्ति भी व्यक्त की गई थी।
भारत ने डोकलाम प्रकरण के बाद 2018 में सिक्किम में भारत-चीन सीमा से मात्र 60 किमी दूर स्थित सामरिक महत्व वाले पाक्योंग हवाई अड्डे का उद्घाटन किया था। जनवरी 2019 में भारतीय वायु सेना ने यहां पर अपने सबसे विशालकाय विमान एएन-32 उतारकर चीन को अपने सुरक्षा प्रबंध का बड़ा संदेश देकर भी परेशानी में डाला था। चीन पहले ही चुंबी घाटी इलाके में सड़क बना चुका है जिसे वह और विस्तार देने की कोशिश कर रहा है। यह सड़क भारत के सिलिगुड़ी कॉरिडोर या चिकन नेक इलाके से थोड़ी ही दूर पर है। इसी कारण से भारतीय सैनिकों और चीनी सेना के बीच अक्सर टकराव होता रहता है। पीएलए के जवानों को वर्ष-2017 में इस विवादित इलाके में निर्माण कार्य करने से भारतीय सेना ने रोक दिया था। चीन को एलएसी पर प्रतिसंतुलित करने के लिए भारतीय सेना ने डोकलाम प्रकरण के बाद बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन के साथ मिलकर तीन नई सड़कों का काम शुरू किया था।
(8) शी चिनफिंग का एशियाई स्वप्न::
चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग एशियाई स्वप्न (Asian Dream) है, वे  21वीं शताब्दी को एशियाई शताब्दी के रूप में बनाना चाहते हैं और उसमें चीन के नेतृत्व में एकध्रुवीय एशिया की स्थापना उनकी बड़ी महत्वाकांक्षा है। इस दिशा में चीन एशिया में भारत को अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मानता है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से वह भारत की सामरिक घेरेबंदी का प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह भारत के पड़ोसी देशों में “चेकबुक डिप्लोमेसी” के द्वारा अपना महत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।  एक ओर तो चीन दक्षिण एशिया में भारत का प्रभाव कम करने की नीति में संलग्न है ताकि भारत के पड़ोसियों में भारत विरोधी भावनाएं मजबूत हो सकें। दूसरी ओर चीन, भारत को सीमा विवाद में उलझाए रखना चाहता है।
(9) सोदेबाजी और दबाव की रणनीति ::
चीन को लगता है ‍कि इस बारगेनिंग पॉलिटिक्स और प्रेशर टैक्टिस (bargaining politics & pressure tactics) के मध्यम से भारत को दक्षिण एशिया की राजनीति में ही उलझाए रखा जा सकता है। इस दिशा में चीन अभी तक भारत को हिंद महासागर क्षेत्र में वन बेल्ट वन रोड के माध्यम से घेरना चाह रहा था, जिसे स्ट्रिंग ऑफ पर्ल नीति भी कहा गया, पर वहां पिछले कुछ समय से भारत की स्थिति पहले से ही मजबूत है। ऐसे में चीन अब भारत को अपनी सीमा से लगे हुए पर्वतीय क्षेत्रों से घेरने की कोशिश कर रहा है एवं इस नीति को प्रभावी रूप देने के लिए उसने भारत के साथ लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में गतिविधियों को तेज कर दिया है।
(10) उग्र राष्ट्रवाद और वन चाइना पॉलिसी::::
चीन अपने अतीत के पूर्वाग्रह से ग्रसित है। 19वीं शताब्दी में चीन जिस प्रकार औपनिवेशिक शक्तियों का शिकार हुआ इसका दर्द आज तक चीनी जनमत में गहराई तक समाया हुआ है। चिनफिंग यह भलीभांति जानते हैं कि अगर चीन में साम्यवादी सरकार को मजबूत बनाए रखना है तो उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काना जरूरी है। ऐसे में चीन अपनी वन चाइना पॉलिसी के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहता।परन्तु चीन की विडम्बना यह है कि हांगकांग, ताइवान, तिब्बत  वन चाइना पालिसी के विरोधी बन चुके हैं। इसी बीच ताइवान में राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण के लिए आयोजित कार्यक्रम में भारत के दो सांसदों की भागीदारी ने भी चीन को भारत के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाने के लिए प्रेरित किया है, जिससे भारत भविष्य में चीन विरोधी ऐसे मंचों पर ना जा सके।
(11) हिमालयी क्षेत्र भू-सामरिक राजनीति का हॉट स्पॉट::
आजकल हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र भू-सामरिक राजनीति का हॉट स्पॉट बन चुका है। 5 मई, 2020 को लद्दाख में और 9 मई को फिर सिक्किम के नकुला सेक्टर में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। डोकलाम संकट जैसा ही एक गंभीर सैन्य संघर्ष मंडराता नजर आ रहा है। दरअसल चीन की इस बौखलाहट का तात्कालिक कारण भारत द्वारा एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) के पास किए जा रहे अवसंरचनात्मक विकास की गतिविधियां हैं जिस पर चीन को आपत्ति है।
चीन, भारत-नेपाल-चीन के बीच बहुआयामी संपर्क बनाने के लिए एक आर्थिक गलियारा बनाना चाहता है। नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली की उनके चीनी समकक्ष वांग यी ने एक संयुक्त प्रेस वार्ता में कहा कि चीन और नेपाल ने हिमालय पार एक बहुआयामी संपर्क नेटवर्क स्थापित करने के दीर्घकालीन दृष्टिकोण पर सहमति है। चीन-नेपाल के मध्य अरबों डॉलर वाली बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) पर सहमति है।जिसमें बंदरगाह, रेलवे, राज मार्ग, उड्डयन और संचार को लेकर रिश्तों का दीर्घकालिक दृष्टिकोण शामिल हैंं। इस प्रकार का नेटवर्क चीन, नेपाल और भारत को भी जोड़ने वाले आर्थिक गलियारे के लिए अनुकूल स्थिति पैदा कर सकता है।
माउंट एवरेस्ट पर चीन का दावा;;;
जब पूरा विश्व एक कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ चीन अपनी विस्तारवादी नीति को करने में लगा हुआ है। 10 मई को  चीन ने विश्व के सबसे ऊंचे पर्वत माउंट एवरेस्ट के चीन के भू-भाग में होने का दावा किया है। इसको लेकर उसने एक फोटो भी जारी की है वहीं आज भारत और चीन के बीच हिंसक झड़प होना सामने आया था। चीन का यह रवैया  नेपाल के साथ एक बड़ा धोखा है। हाल ही में चीन ने यह बड़ा दावा किया है कि विश्व का सर्वोच्च पर्वत शिखर अब उसके अधिकार क्षेत्र में है। चीन ने कहा कि माउंट एवरेस्ट चीन के भू-भाग में पड़ता है। यह चीन की विस्तारवादी नीति की मंशा को जाहिर करता है।
कोरोना काल और शक्ति की राजनीति::::
कोरोना वायरस की आपदा के राजनीतिकरण से उपजे जिस शक्ति राजनीति ने जन्म लिया है, वहां सभी बड़ी शक्तियों के वैश्विक प्रभाव और वर्चस्व दांव पर लगे हुए हैं। आपदा को अवसर के रूप में अमेरिका भी देख रहा और चीन भी। वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी के सबसे बड़े शिकार अमेरिका और यूरोपीय देशों की कमजोरी ने पिछले एक दशक में चीन की वैश्विक सुपर पॉवर बनने की हसरतों को बढ़ा दिया है। अब अमेरिका कोविड के बहाने चीन को दुनिया में अलग-थलग करने की कोशिश में लगा है तो चीन भी कभी भय तो कभी प्रलोभन की राजनीति के जरिये अलग-अलग देशों को अपने गुट में शामिल करने में लगा हुआ है। इन दो बड़ी महाशक्तियों की शक्ति राजनीति का केंद्र बिंदु भारत बना हुआ है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत और चीन के बीच मध्यस्थता के लिए पहल करने की मंशा के बहाने यह दिखाने की कोशिश भी की कि वह भारत के साथ खड़ा है और अभी भी विश्व में शांति व सुरक्षा को बनाए रखने वाला निर्णायक देश है। चीन नहीं चाहता है कि भारत चीन विरोधी गुट में खुलकर शामिल हो। इसीलिए डोकलाम संकट के बाद वुहान और चेन्नई बैठक के जरिये पहले तो चीन ने भारत से संबंधों को मधुर बनाने की पहल की थी। परन्तु कोरोना काल में चीन की भूमिका को लेकर बने एलायंस में भारत ने भी जब चीन के विरुद्ध भाग लिया तो चीन ने अपनी नीति बदलनी शुरू कर दी। अब वह पाकिस्तान और नेपाल के बहाने एक तरफ भारत को घेर रहा है तो दूसरी तरफ अनसुलझे सीमा विवाद को उठाकर भारत पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश में लगा है।
मोदी की आक्रामक नीति :::::::
वर्तमान में तत्काल ही भारत ने चीन के विरुद्ध जिस प्रकार वैश्विक शक्तियों से गठजोड़ किया है, उसी का परिणाम है कि भारत की तरफ से सख्त संदेश मिलने के बाद चीन ने भी अब समझौते की भाषा बोलनी शुरू की है। भारत में चीन के राजदूत सुन वेडांग ने कहा है कि भारत और चीन एक-दूसरे के लिए खतरा नहीं, बल्कि अवसर हैं। द्विपक्षीय सहयोग में दोनों देशों के मतभेद की परछाई पड़ने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। इसी क्रम में भारतीय प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और तीनों सेनाओं के प्रमुख के साथ लद्दाख में घुसपैठ के मुद्दे पर हुई बैठक में निष्कर्ष यह निकला है कि सैन्य बल के सहारे दबाव बनाने की चीन की रणनीति को नाकाम किया जाएगा।
चीन के एतराज के बावजूद सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़कों व दूसरे निर्माण कार्य को जारी रखा जाएगा, क्योंकि यह भारत की प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता का मामला है। इस बीच भारत ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह चीन के खिलाफ किसी भी संघर्ष की स्थिति में उचित जवाबी कदम उठाने से नहीं हिचकेगा। भारत चीन को यह संदेश देने में सफल रहा है कि अब वह उसे 1962 का भारत नहीं समझे। उसका सॉफ्ट पॉवर होना उसकी कमजोरी तो बिल्कुल नहीं समझे, क्योंकि अब भारत क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने के लिए हार्ड पावर के इस्तेमाल से भी संकोच नहीं करेगा। हालांकि अभी भी चीन अपने डीप पॉकेट और धूर्त राजनीति के कारण भारत से अनेक क्षेत्रों में उन्नत स्थिति में है, परन्तु चीन यह भी समझता है कि जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत होती जाएगी, चीन की चाहतें भी वैसे-वैसे समाप्त होती जाएंगी। इसलिए भारत को एक ऐसी खास विदेश नीति और घरेलू नीति की जरूरत है, जिससे आत्मनिर्भर, सशक्त और विश्व में रचनात्मक भूमिका निभाने में सक्षम भारत का उदय हो सके।
प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का जो अक्षुण्य मंत्र दिया है वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ स्वदेशी नीति और सक्षम समर्थ भारत की रूपरेखा और रणनीति स्पष्ट करता है।‍
कूटनीतिक रणनीति—
भारत और चीन के बीच कूटनीतिक स्तर पर प्रतिस्पर्धा चल रही है। चीन जहां दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देशों में सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अड्डों का निर्माण करके भारत को घेरने की रणनीति बना रहा है वहीं, प्रधानमंत्री मोदी जी की ‘पड़ोसी सबसे पहले’ की आक्रामक नीति ने चीन को कई देशों में कटु उत्तर दिया है। चीन मोतियों की माला की नीति (string of purl policy) के अंतर्गत दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देशों में सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अड्डों का निर्माण करके भारत को घेरने की लंबे समय से जीतोड़ कोशिश कर रहा है। इसलिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी अपने पड़ोस में चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को पूरी नहीं होने देने की आक्रमक नीति पर अग्रसर हैं। ऐसे में दक्षिण एशिया दो शक्तियों की प्रतिस्पर्धा के रूप में बदल रहा है।
(1) मालदीव में बदली तस्वीर
प्रधानमंत्री मोदी जी ने मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया था। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के दौर में मालदीव के साथ भारत संबंधों में  खटास आ गई थी। भारतीयों को वर्क वीजा देने पर पाबंदी, चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता जैसे यामीन के फैसलों ने भारत को चिंता में डाल दिया था। लेकिन, अब वहां की नई सरकार चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता तोड़ने का ऐलान कर चुकी है।
(2) फंडिंग का जाल—
(फंडिंग के जरिए भारत को घेरने की चीनी चाल) दरअसल, चीन ने पड़ोसी देशों में बुनियादी ढांचों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर फंडिंग करके भारत को घेरने की चाल चली। लेकिन, जब चीन की फंडिंग ‘कर्ज के जाल’ के रूप में प्रकट होने लगी तो भारत के पड़ोसी देशों की नींद खुली और उन्हें आर्थिक प्रगति के लिए भारत की ओर से मुहैया किए जा रहे अवसरों की महत्ता समझ में आने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि अब वे देश चीन के चंगुल से निकलकर भारत के साथ आर्थिक संबंध स्थापित करने को उत्सुक दिख रहे हैं।
(3) श्रीलंका में भारत ——
भारत के पड़ोसी देशों में चीन का प्रभाव घटाने के मोदी के अथक प्रयासों से दोनों देशों के बीच शक्ति संतुलन को लेकर खींचतान बरकरार है। श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे को सत्ता से हटाने के लिए भारत ने मैत्रीपला सिरिसेना और रानिल विक्रमसिंघे के बीच गठबंधन कराने में अपनी भूमिका निभाई। राजपक्षे ने चीन को हंबनटोटा बंदरगाह को लीज पर दे दिया था। इसके अतिरिक्त उनकी सरकार ने कोलंबो बंदरगाह के निर्माण एवं चीन के समुद्री जहाजों को वहां आने की अनुमति भी दे दी थी। इससे चीन को श्रीलंका में रणनीतिक प्रवेश मिल गया था। विक्रमसिंघे ने अब चीन के साथ हुई पुरानी डील को खत्म कर दिया और हंबनटोटा एयरपोर्ट के संचालन के लिए भारत के साथ समझौता कर लिया। हालांकि श्रीलंका में राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भारत अभी भी चिंतित है।
(4) नेपाल का चीन के प्रति बदलता नजरिया—
चीन की आर्थिक ताकत के मद्देनजर उसे परास्त करने के लिए भारत ने और कड़े प्रयास किए हैंं। मोदी की ‘पड़ोसी सबसे पहले’ की आक्रामक नीति के कारण नेपाल की एक पनबिजली परियोजना चीन के हाथ से निकल गई। चीन ने इसके पीछे की वजह यह बताया कि वह हजारों परिवारों को दूसरी जगह बसाने को तैयार नहीं था। हालांकि, बताया जाता है कि इसके पीछे वास्तविक कारण फिर से भारत ही रहा। भारत ने कथित तौर पर नेपाल से स्पष्ट कह दिया था कि वह इस परियोजना से पैदा हुई बिजली नहीं खरीदेगा। इससे चीन समझ गया कि छोटे से देश नेपाल में इस परियोजना से पैदा हुई बिजली की पूरी खपत नहीं हो पाएगी और उसे नुकसान हो जाएगा, इसलिए उसने मजबूरन इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया। मोदी सरकार द्वारा नेपाल के सात जिलों में 56 हायर सेकंडरी स्कूलों का पुननिर्माण करेगी।
(5) चीन की इन्फ्रास्ट्रक्चर फंडिंग को लेकर पड़ोसी देशों में खुद ही शंका पैदा होने लगी है। इसका एक उदाहरण बांग्लादेश के फैसले में देखा जा सकता है। चीन ने बांग्लादेश को पद्मा नदी पर रेल एवं सड़क पुल निर्माण के लिए फंडिंग का लालच दिया, लेकिन बांग्लादेश ने इस लालच में न आकर अपने पैसे से यह निर्माण कार्य पूरा करने का फैसला किया। हालांकि, इस प्रॉजेक्ट में कुछ चीनी कंपनियां काम कर रही हैं, लेकिन बांग्लादेश ने चीन से कोई कर्ज नहीं लिया है। बांग्लादेश न केवल चीन से कर्ज को लेकर काफी सतर्कता बरत रहा है, बल्कि उसने अपने यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स में काम करने की इच्छुक चीनी कंपनियों को नकारा है। इतना ही नहीं, उसने कुछ चीनी कंपनियों को ब्लैकलिस्ट भी कर चुका है।
प्रो. रामदेव भारद्वाज-अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति है।
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