अगर तुम किसी की मदद नहीं कर सकते तो तुम खुद को कामयाब मत मानो -सोनू सूद
सोनू खुद टॉयलेट के बीच वाली जगह में सोते थे

नई दिल्ली-
कोरोना लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के मसीहा बने सोनू सूद के जिंदगी की पहलू से हम आपको रूबरू करवाने जा रहे हैं। सोनू सूद की जिस छवि को आज चारों ओर वाहवाही मिल रही है। दरअसल सोनू सूद को महानगरों में फंसे हुए मजदूरों की असहनीय तकलीफों ने उनके मन को विचलित कर दिया। सोनू सूद खुद पहले यह दर्द झेल चुके थे। जब वे ट्रेन से आते थे तो टॉयलेट के बीच वाली जगह में सोते थे। सोनू सूद अपने करियर र स्थापित करने के दौरान उन्होंने संघर्ष का जो जीवन गुजारा है, शायद उसी वजह से वो प्रवासी मजदूरों के दर्द को दूसरों से ज्यादा महसूस कर पा रहे हैं। नागपुर में इंजीनियरिंग का छात्र में जब सोनू पढ़ते थे, वह ट्रेन के कंपार्टमेंट में टॉयलेट के पास छोटी सी खाली जगह में सोकर घर आता था।
उसकी कोशिश होती थी कि जितना बचा सकता था बचा लें। वे अपने पिता की कड़ी मेहनत की बड़ा कद्र करते थे। जब वे मुंबई में मॉडलिंग की करियर के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो ऐसे कमरे में रहते थे, जहां सोने के दौरान करवट बदलने की भी जगह नहीं थी। करवट बदलने के लिए उसे खड़ा होना पड़ता था…..वहां जगह ही नहीं थी।
खास बात यह है कि अपने मुंबई में संघर्ष के बारे में परिवार वाले को भी नहीं बताते थे।
जब उनकी पहली फिल्म रीलीज हुई तब वे ट्रेन के सीट पर बैठकर आए तो उन्होंने कहा कि बहुत अच्छा लग रहा है। आज मैं सीट पर बैठकर आया हूं। इसके बाद ही उसने अपने परिवार वाले को बताया कि वह ट्रेन में अक्सर पेपर के सीट पर बैठकर ट्रैवल करता है।
सोनू सूद अपने माता-पिता से बहुत ज्यादा अटैच थे। ये सारे संस्कार उसे अपने माता-पिता से मिला है। उनकी मां जो अंग्रेजी की प्रोफेसर थी जो जरूरतमंद बच्चे घर पढ़ने आ जाते थे उनसे पैसे नहीं लेती थी। सोनू अपने पिता को दूसरों की मदद देखते हुए बड़े हुए हैं। और यही जज्बा उनमें आज भी कायम है। सोनू सूद के पिता कामगारों से काफी अटैच थे। उनके यहां कामकर रहे करीब 15 कर्मचारी थे जिससे वे व्यक्तिगत रूप से जुड़े थे. यहीं संस्कार सोनू में भी आया है वे उनके दुख दर्द को समझते हैं।
सोनू सूद ने सबसे पहले कोरोना वारियर्स के लिए अपने होटल दे दिए जहां वे आराम कर सकते हैं। जब उन्होंने देखा कि प्रवासी पैदल घर जा रहे हैं उनमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं हैं तो वे परेशान हो गए और उन्होंने फैसला कर लिया कि अब वे घर में नहीं बैठेंगे और उन्होंने इसके लिए कुछ करने की ठान ली और फिर निकल पड़े जिसमें वे काफी हद तक सफल हुए। अब तक करीब 20,000 प्रवासियों को घर पहुंचा चुके हैं और यह सिलसिला जारी है जब तक अंतिम प्रवासी को वे घर नहीं पहुंचा लेंगे तब तक वे चैन से नहीं बैठेंगे यह उनका संकल्प है। इसकी शुरुआत तब हुई जब उन्होंने सबसे पहले 350 प्रवासियों को बस से कर्नाटक भेजा।
सोनू सूद उस समय भावुक हो गए जब एक प्रवासी ने अपने बच्चे का नाम सोनू सूद श्रीवास्तव रखा। उन्होंने कहा कि वे इस बात को कभी भूल नहीं पाएंगें।
सोनू सूद को सलाम