देशसंवाद

बिहार विमर्श की प्रासंगिकता- अपनी क्षमताओं को पहचाने बिहार

शंकर स्मृति प्रतिष्ठान द्वारा लोकप्रिय साहित्यकार और पूर्व सांसद शंकर दयाल सिंह जी की जयंती के अवसर परआयोजित कार्यक्रम

– डॉ. विपिन कुमार (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

हाल ही में नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुआ। बिहार के लोकप्रिय साहित्यकार और पूर्व सांसद शंकर दयाल सिंह जी की जयंती के अवसर पर आयोजित इस कार्यक्रम में सारण के लोकसभा सांसद राजीव प्रताप रूडी मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए, जो पूर्व में भारत सरकार के मंत्री भी रह चुके हैं। इसके अलावा कार्यक्रम में पूर्व केन्द्रीय सचिव सीके मिश्र, भारत सरकार के पूर्व प्रधान आर्थिक सलाहकार आनन्द सिंह भाल जैसे कई गणमान्यों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।बतौर आयोजक स्व शंकर दयाल सिंह जी की पुत्री एवं भारतीय प्रशासनिक अधिकारी श्रीमति रश्मि सिंह ने आमंत्रित किया , जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक श्री रंजन कुमार सिंह ने की ।

यहाँ मैं शंकर स्मृति समारोह का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि इस अवसर पर बिहार को लेकर एक गहरी चर्चा हुई। यहाँ बिहार के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को लेकर कई विचारोत्तेजक तथ्य रखे गए। वास्तव में, इस प्रकार के आयोजनों से बिहार विमर्श की प्रासंगिकता को एक नया आयाम हासिल होगा।

यह कोई छिपाने वाली बात नहीं है कि बिहार का प्राचीन काल से ही एक गौरवशाली इतिहास रहा है। बिहार भगवान बुद्ध, महावीर जैन और चाणक्य जैसे महात्माओं और विद्वानों की कर्मभूमि रही है, तो सम्राट अशोक ने यहीं की मिट्टी से पल्लवित होकर पूरे विश्व में धर्म की स्थापना की।

बिहार की मिट्टी ने ही राष्ट्रकवि दिनकर को जन्म दिया, तो हमारे राजेन्द्र बाबू आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में मनोनीत हुए। आपातकाल के दौरान जब सत्ता ने अपनी असीम शक्तियों का इस्तेमाल अपने ही लोगों के खिलाफ करना शुरू कर दिया, तो उस वक्त लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के उद्घोष ने पूरे देश को एकजुट कर दिया और इसकी तपिश इतनी भयानक थी कि सत्ता उसके सामने टिक नहीं सकती थी।

लेकिन आज परिस्थितियां अलग हैं। आज बिहार की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती है। आर्थिक हो चाहे सामाजिक – हम जीवन के हर पहलू में विच्छिन्न हो चुके हैं और हमें न खुद पर विश्वास है और न ही अपने राज्य और इसकी महान ऐतिहासिक विरासतों पर।

आज बिहार के समाज में एक विचित्र नीरसता और हतोत्साह ने जन्म ले लिया है और हमें इससे पार पाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। लेकिन हमें अब सजग होना होगा और एक सक्षम और सुदृढ़ बिहार के निर्माण के लिए अपनी भूमिकाएं निभानी होगी।

इस कार्यक्रम के दौरान, राजीव प्रताप रूडी ने एक बेहद जरूरी मुद्दा उठाया, “आखिर ऐसा क्या है आज बिहारी आगे है और बिहार पीछे? हमने अपने आधारभूत संरचना में काफी सुधार किया है। आज हमारे पास चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध है। सड़कों की स्थिति बेहतर है। लेकिन ऐसा क्या है, जिस वजह से हम इतने पीछे हैं?”

वास्तव में, उनका यह कथन कई मायनों में काफी विचारोत्तेजक है। बीते कुछ वर्षों के दौरान बिहार की सार्वजनिक सुविधाओं में काफी सुधार आया है।

लेकिन ऐसा क्या है कि हम आज भी यहाँ आपराधिक घटनाओं पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं? लोगों को अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए बेबशी और लाचारी में दूसरों राज्यों की ओर रुख करना पड़ रहा है।

कुछ समय पहले नीति आयोग द्वारा बिहार के सामाजिक सूचकों के संदर्भ में एक रिपोर्ट जारी की गई। इस रिपोर्ट में बिहार में सर्वाधिक बहुआयामी गरीबी की बात कही गई। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की कुल आबादी का करीब 52 प्रतिशत हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे अपना गुजर-बसर करता है। जबकि, यहाँ कुपोषण की दर भी करीब 52 प्रतिशत है। कुपोषण की इस समस्या के कारण 4.5 प्रतिशत बच्चे और किशोर अकाल मौत के मुँह में समां जाते हैं। दूसरी ओर, राज्य मातृ स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी पिछड़ा हुआ है और यहाँ करीब 46 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव के दौरान कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

आज शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की बात हो, चाहे उद्यमिता, पर्यावरण और स्वच्छता जैसे घटक, बिहार हर मामले में सबसे निचले पायदान पर है।

तो, आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? इसके लिए जिम्मेदार है हमारी राजनैतिक व्यवस्था। बिहार को पिछलग्गू बनाने के लिए जिम्मेदार है, हमारी जातिवादी मानसिकता। आज बिहार की जो हालत है, वह 30 वर्ष नहीं बल्कि बीते दशकों की नाकामयाबी का नतीजा है।

यहाँ की राजनैतिक दलों ने अपना वोट बैंक बनाने के लिए, लोगों को जाति के आधार पर बाँट कर रहा है। यहाँ लोगों जाति के नाम पर इतने मतांध हो चुके हैं कि उनका ‘बिहारी’ पहचान तभी जाग्रत होता है, जब वे बिहार से बाहर होते हैं।

यहाँ के नेताओं ने खुद को सत्ता में बनाए रखने के लिए आरंभ से ‘आरक्षण’ को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया। कभी अनुसूचित जाति और जनजाति के नाम पर, तो कभी पिछड़ा और अति-पिछड़ा के नाम पर। इन्होंने अपनी रोटियां सेंकने के लिए राज्य को भौगोलिक रूप से भी बाँटना नहीं छोड़ा। यही वजह है कि नेता तो जीत गए, लेकिन बिहार हर दिन हार रहा है।

आज बिहार के करीब 4 करोड़ लोग अपने जीवनयापन के लिए पलायन कर चुके हैं। यह एक ऐसी आबादी है कि जो अपने खून-पसीने से भारत निर्माण कर रहे हैं। हम अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं। फिर भी, सवाल बना रहता है कि जब बिहार पिछड़ा है, तो हम आगे कैसे हो सकते हैं?

इसलिए अब वक्त आ चुका है कि हम अपने जन-प्रतिनिधियों से तीखे सवाल पूछें। उन्हें सिर्फ चुनावी वादों के लिए नहीं, बल्कि योजनाओं के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन के लिए बाध्य करें। हम अपनी जातिगत पहचान को धूमिल करें और अपनी क्षमताओं को जगाएं। इसके लिए हमारे युवाओं को सामने आना होगा। तभी एक बेहतर और आत्मनिर्भर बिहार का सपना साकार हो पाएगा

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